बुधवार, 12 जुलाई 2017

यात्रा वृतांत - हेमकुंड़ साहिब का रोमाँचक सफर-2(समाप्न किश्त)


घाघरिया से हेमकुंड साहिब एवं बापस गोविंदघाट
 
फूलों की घाटी की ओर

घाघरिया से फूलों की घाटी महज 3-4 किमी आगे है। अतः आज के बचे हुए समय में हम यहाँ के दर्शन करना चाह रहे थे। हेमकुंड से आ रही हेमगंगा(लक्ष्मणगंगा) के पुल को पार कर हम फूलों की घाटी में प्रवेश के इच्छुक थे। लेकिन वहाँ पता चला कि 2 बजे के बाद घाटी में प्रवेश वर्जित है। अतः हम वहीं घाटी द्वार पर एक ग्रुप फोटो के साथ संतोष कर वापिस हो लिए। 


 रास्ते में हनुमान मंदिर से होते हुए हेमकुंड मार्ग का अवलोकन करते हुए पार हुए। सामने हेमकुंड से आ रहे हिमनद पर बने झरने को देख सब उस ओर बढ़ चले। हेमगंगा की धारा के तेज प्रवाह को पार कर झरने तक बढ़ने लगे। ग्रुप के रफ-टफ लोग ही झरने तक पहुँच पाए, बाकि नीचे चट्टानों पर ही अठखेलियाँ करते रहे।

झरने का आलौकिक दृश्य –
झरने का दृश्य स्वयं में आलौकिक था। इंद्रधनुषी आभा के साथ इसका निर्मल जल झर रहा था। कल-कल कर हवा में घुलता इसका दिव्य निनाद मन को ध्यान की गहराइयों में उतार रहा था। सामने उस पार  फूलों की घाटी के पीछे के हिमाच्छादित पर्वत शिखर एकदम पास दिख रहे थे। थोड़ी ही देऱ में सब थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आसन जमाकर ध्यानस्थ हो गए।

ये पल सबके लिए निश्चित रुप से चिरस्मरणीय रहेंगे। आसमान में छाए बादलों से होकर झिलमिलाती सूर्य किरणें जैसे अज्ञान-अंधकार से आच्छादित शिष्यों पर गुरुकृपा की प्रकाश किरणों की तरह बरसती हुई प्रतीत हो रहीं थीं। इस तरह कुछ पल गहन चिंतन-मनन एवं निदिध्यासन के बिताकर हम बापस बेस केंप की ओर आ गए। रात को समय पर सोकर सुबह तड़के 4 बजे तैयार होकर अपनी मंजिल हेमकुंंड साहिब की ओर बढ़ना था।

हेमकुंड सरोवर की ओर
टीम के जिन कमजोर सदस्यों को यहाँ रोकने की सोचे थे वे कोई भी रुकने को तैयार नहीं थे। सबका उत्साह व जज्बा देखते हुए ग्रुप के 7 सदस्यों को खच्चरों पर बिठाकर बाकि पैदल हेमकुंड सरोवर की ओर कूच कर गए।
तीर्थयात्रियों की भीड़ जमना शुरु हो गई थी। कुछ खच्चरों का इंतजाम कर रहे थे तो कुछ पैदल। अभी अंधेरा छाया था। खच्चर रास्ते के हर कोनों से परिचित लगे। एक लय में धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ रहे थे। उनके गले में बंधी घंटियां हॉर्न का काम दे रही थी। धीरे-धीरे लगभग आधे घंटे बाद भोर का उजाला छाने लगा।
धीरे-धीरे हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर सूर्य की पहली किरणें उतर रहीं थी। बर्फ से ढके पहाड़ सोने के शिखर प्रतीत हो रहे थे। धीरे-धीरे इनकी चमक बढ़ती गई और ये सोने से चाँदी के पर्वत में बदल रहे थे।
इस तरह आधे सफर के बाद एक ढ़ाबे में चाय-बिस्कुट के साथ कुछ पल विश्राम कर, काफिला धीरे-धीरे आगे बढता गया। 
खच्चर मार्ग जहाँ आगे हल्की चढ़ाई लिए हुए आर-पार होकर जाता है, तो वहीं पैदल मार्ग शॉर्टकट लिए सीधी खड़ी चढ़ाई लिए है। इसके अंतिम पड़ाव तक पदयात्री थक कर चूर हो चुके थे। शरीर जबाब दे चुका था, बस ह्दय की आस्था और जीवट के सहारे सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था।
इस तरह हम हेमकुंड साहिब से झर रही हेमगंगा झरने के नीचे पहुँचते हैं। यहाँ से झर रही अनगिन पानी की झालरें एक ओर जहाँ अद्भुत नजारा पेश कर रहीं थीं, वही मंजिल पर पहुंचने का सुकूनदायी अहसास भी दिला रही थीं।

इसका पानी नीचे दुधिया रंग की तेज धारा के रुप में बह रहा था। रास्ते में ब्रह्मकमल के दुर्लभ दर्शन भी हमारे कुछ जागरुक सदस्यों को हो चुके थे। कुछ ही देर में हम हेमकुंड साहिब के द्वार पर थे। काफिला इकट्ठा होकर नीचे घाटी का अवलोकन करता है तो विश्वास नहीं हुआ कि 6 किमी की खड़ी चढ़ाई भरा दुर्गम पथ पार कर हम इस ऊँचाई तक पहुंच चुके हैं। सामने पर्वत के पार बर्फ से ढकी सफेद चोटी दिखी। पता चला वह बद्रीनाथ के पीछे का नीलकंठ शिखर है।


पावन सरोवर में डुबकी
काफिला इकट्ठा होने के बाद सरोवर की ओर चल पड़ा। यह वही सरोवर है जिसके किनारे सिक्खों के दशमगुरु गोविंद सिंह ने पूर्व जन्म में घोर तप किया था। गुरु साहिबान की आत्मकथा विचित्र नाटक में इसका रोमांचक वर्णन है। इसमें वर्णित सप्तश्रृंग प्रत्यक्ष सामने थे, जिन्हें सप्तऋषियों का प्रतीक माना जाता है। ऋषिवत् ही जैसे ये यहाँ ध्यानमग्न प्रतीत हो रहे थे। हर शिखर के ऊपर निशां साहिब फहरा रहे थे। हर वर्ष 5 अगस्त के दिन एक विशिष्ट अनुष्ठान के तहत इनका पावन आरोहण किया जाता है। ज्ञातव्य हो कि यह पावन स्थल मई से सितम्बर-अक्टूबर तक ही गम्य रहता है। बाकि समय यहाँ बर्फ रहती है। सर्दियों में तो यहाँ 40फीट तक की बर्फ जम जाती है। 
 सरोवर स्थानीय गलेशियरों से पोषित है। सितम्बर माह में बर्फ हालांकि अपने न्यूनतम स्तर पर थी। तप साधना के लिए आदर्श इस एकांतिक स्थल की रमणीयता एवं विषमता रोमाँचित कर रही थी। ऐसे ही कुछ भावों के सागर में गहरी डुबकी लगाते हुए, हम सरोवर में उतरे।
सबने इसके निर्मल जल में डुबकी लगाई। सरोवर के जल में तीन डूबकी के बाद लगा जैसे कहीं शरीर न जम जाए। पानी इतना ठंडा था, फ्रीजिंग कोल्ड। लेकिन बाहर निकलते ही तन-मन तरोताजा था, लगा जैसे कि जन्म-जन्मांतर के पाप-ताप कट गए और रुह हल्की और प्रकाशित हो रही है। यहाँ से फिर भंडारे में गर्मागर्म चाय और खिचड़ी का प्रसाद लेकर कुछ गर्माहट शरीर को दिए। फिर गुरुद्वारे में कुछ माथा टेककर चल रहे गुरुवाणी के शब्दकीर्तन का श्रणव-सतसंग कर बाहर आए। 
 थककर चूर कुछ राही बाहर चट्टान पर गहरी योगनिद्रा में लीन थे। जीवन में पहली बार पहाड़ों का दर्शन करने बाली इन जीवात्माओं का 15500 फीट की ऊँचाई तक सकुशल चढ़ना हमें आश्चर्यचकित कर रहा था, लेकिन अटल आस्था एवं गुरुकृपा के बल पर क्या असंभव, यह उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही थी।


लक्ष्मण मंदिर के दर्शन
गुरुद्वारे के ही साथ वाईँ ओर लक्ष्मण मंदिर है। लोकमान्यता के अनुसार, भगवान राम के भ्राता लक्ष्मण की यह तपस्थली रही है। स्थानीय हिंदु परिजनों के बीच इस क्षेत्र की लोकपाल के रुप में विशिष्ट मान्यता है। नित्य पुजारी घाघरिया से यहाँ पूजन करने आते हैं। विशिष्ट अवसरों पर यहाँ भी धार्मिक अनुष्ठान एवं आयोजन होते रहते हैं।
 
हिमालय की शान - दुर्लभ ब्रह्मकमल का गलीचा


गुरुद्वारे के ठीक पीछे साइड में ब्रह्मकमल का गलीचा बिछा था। यहाँ फूल तोड़ना मना है, अतः कुछ इनको कैमरे में कैप्चर कर थे तो कुछ लोग इनका दुर्लभ दूरदर्शन कर रहे थे। ज्ञातव्य हो कि ब्रह्मकमल 12,000 फीट से ऊपर की ऊँचाइयों में उगने वाला दिव्य गंध लिए हुए पुष्प है। 
सूर्योदय के साथ सरोवर का बदलता रंग भी दर्शनीय लगा। कारण, जल इतना निर्मल है कि जैसा आकाश का रंग होता है वही प्रतिबिम्बित होकर झील का रंग प्रतीत होता है, सभी सप्तश्रृंग इसमें प्रतिबिम्बित होकर एक आलौकिक नजारा पेश करते हैं। सरोवर के ऊपर ट्रैकिंग व चहलकदमी आदि बर्जित है, जो सरोवर की पवित्रता-पावनता को बनाए रखने के हिसाव से उचित भी है। 



सफर बापसी का
कुछ यादगार पल यहाँ विताकर काफिला तन-मन से तरोताजा होकर वापस नीचे उतरा। रास्ते में सीधा नीचे घाघरिया के दर्शन हो रहे थे। नीचे की उतराई में घुटने के नीचे की टाँगों की विशेष परीक्षा होती है। लगातार उतराई में तेज दौड़ने से टाँगें जैसे खुद व खुद दौडने लगती हैं। निश्चित रुप में जहाँ चढ़ाई में फेफड़ों की परीक्षा होती है, तो वहीं उतराई में टाँगों की। 
राह में बनी हुई चट्टियों, ढाबों व छायादार वृक्षों की छांव चले हम बीच-बीच में दम भरते हुए घाघरिया की ओर बढ़ रहे थे। हालांकि मार्ग अधिकांशता चट्टानी पर्वतों से घिरा है, लेकिन रास्ते में जंगली फलों व भोजपत्र के वन दर्शनीय हैं। 

इस तरह घाघरिया पहुँचकर हम सामान समेटे और गुरुद्वारा लंगर में प्रसादा ग्रहण कर गोविंदघाट की ओर बढ़ चले। कुछ हमारे थके साथी खच्चर पर सवार होकर चल पड़े, तो अधिकांश पैदल ही उतर रहे थे। 
रास्ते में भ्यूंडर में ब्रह्मकमल के पुष्पगुच्छों के साथ स्थानीय पुजारी व इनके सेवादार सहयोगियों को जाते देखा। पता चला कि ये गाँव की देवी को भेंट के लिए जा हैं। यहाँ गाँवों के वार्षिक उत्सव की तैयारियां चल रही थी। इस तरह हम भ्यूंडर से होते हुए आगे पुलना गाँव को पार करते हुए शाम के अंधेरे में गोविंद घाट पहुंचे।

रास्ते के सबक – यात्रा के दौरान हम साप्ताहिक उपवास पर थे। ऐसे में ठंड का सामना करते-करते चाय का सेवन कुछ ज्यादा कर बैठे थे, जिसका खामियाजा वापसी के अंतिम 3-4 किमी में भुगतना पड़ा। साथ ही हम लगा डिहाइड्रेशन का शिकार हो चुके थे। अपने सहयोगी मित्र के कंधों के सहारे अंतिम पड़ाव पूरा हुआ। अतः ऐसे सफर में आहार और जलपान के संतुलन का ध्यान रखना जरुरी है। ऐसे सफर में उपवास जैसे हठयोग को न आजमाएं। हल्का भोजन लेते रहें। जल-पान में कंजूसी न करें। पसीना बहने के कारण डिहाइड्रेशन से बचने के लिए नमकीन-मीठी चीजों व तरल पदार्थों का उचित मात्रा में सेवन करते रहें।
अधूरे सफर की दासतान
सफर में हम कैनी के साथ माज़ा की बड़ी बॉटल में सरोवर का पवित्र जल भर लाए थे। रास्ते में हमारा बैग बदल गया। जिनके हाथों यह बैग लगा, रास्ते में वे प्यास लगने पर पीने का पानी समझकर सारा जल पी गए। अतः हमारा दुर्लभ पावन जल हमारे साथ नहीं था। मन को थोड़ा झटका तो लगा क्योंकि अब दुबारा तत्काल बापिस जाना संभव नहीं था। इसे दैवी विधान का हिस्सा समझकर मन को यह समझाकर संतोष किए कि भीड़ के साथ यात्रा में कुछ अधूरापन रह गया, जिसके लिए अब अगले वर्ष सरोवर की एक ओर यात्रा करनी होगी। इस तरह संतप्त मन को समझाकर शांत किए। लेकिन यात्रा का अधूरापन मन में गहरा समा गया था।
हेमकुंड का एकला अभियान
सो ऐसा संयोग अगले वर्ष सितम्बर 2013 में बना। 4-6 बंधुओं को इसका निमंत्रण देने के बावजूद अंत तक जब कोई तैयार नहीं हुआ तो हम अकेले ही हेमकुंड साहिब के लिए चल पड़े। पिछली यात्रा का अनुभव साथ में था। जाते हुए हम जाम व भीड़ के चलते जोशीमठ गुरुद्वारे में रुके। यहाँ की सुंदर लोकेशन और उमदा व्यवस्था हमें भा गई। अगले दिन हम जीप से गोविंदघाट उतरे और वहाँ से सीधे पुल पार करते हुए उस पार पहुँच गए। रास्ते में पंजाब से दो सिक्ख भाई यात्रा के हमसफर बने। 

रास्ते में जून 2013 की त्रास्दी का मंजर साफ दिखा। गुरुद्वारे के पास के पार्किंग क्षेत्र के कुछ अवशेष ही शेष बचे थे। नीचे हेलीपेड़ गायब था। पुलना गाँव दो तिहाई बाढ़ की गाद से भरा था। 

भ्यूंडर गांव का नामों निशान मिट चुका था। अब यह मार्ग देवदार के पनप रहे घने जंगल से होकर गुजर रहा था। हेमगंगा के किनारे का 3-4 किमी रास्ता गायब था। अब रास्ता कागभुशुंडी से आ रही नदी से उस पार होकर दांईं ओर से जंगल से होकर जा रहा था। आगे की यात्रा लगभग पिछले बर्ष के ही क्रम में रही। इस बार पावन सरोवर के जल के साथ हम बापिस आए। अपना बेग किसी को थमाने की गलती इस बार नहीं किए।
यात्रा के सबक

एकाकी भ्रमण का अलग ही रोमाँच रहता है। लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ अपने शरीर की फिटनेस और मन की अगाध आस्था के बल पर ही किया जा सकता है। इस बार सरोवर का पावन जल हमारे साथ था, लेकिन घाघरिया  से वापस उतरते समय हमारे पैर जबाव दे रहे थे। हमारे दोनों पंजाबी साथी आगे बढ़ चुके थे। हम घाघरिया के नीचे जंगल में एकदम अकेले पड़ चुके थे।  पैर काँप रहे थे। किसी तरह इनको घसीटते हुए, पीठ के रक्सैक को ढोते हुए हम आधा जंगल ही पार कर पाए। रास्ते में पत्थरों पर रुककर भगवान को याद करते रहे। कोई भी खच्चरवाला एक सवारी को लेने को तैयार नहीं था। सभी खच्चर लदे हुए थे। अंत में एक खच्चर बाला एक खाली खच्चर के साथ हमें बिठाने को सहर्ष तैयार हुआ। इसे हम कठिन परीक्षा के बाद की गुरुकृपा मान रहे थे।

इस यात्रा का सबक यह रहा कि यात्रा का निर्धारण देखा देखी न करें। अपनी शारीरिक अवस्था, आयु, फिटनेस आदि का ध्यान रखते हुए कार्यक्रम की प्लानिंग करें। हमारे लिए उचित था कि घाघरिया से खच्चर पर बैठकर नीचे आते या रात को वहीँ रुककर अगली सुबह तरोताजा होकर नीचे उतरते।

जो भी हो हम शाम तक गोविंदघाट पहुँचते हैं। रात्रि को गुरुद्वारे में विश्राम के बाद रिचार्ज होकर हेमकुंड साहिब की रुहानी यादों के साथ प्रातः अगले गंतव्य की ओर कूच कर जाते हैं।

यदि इस यात्रा का पहला भाग नहीं पढ़ा हो तो, नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हेमकुण्ड साहिब यात्रा, भाग-1

सोमवार, 10 जुलाई 2017

यात्रा वृतांत - हेमकुंड़ साहिब का रोमाँचक सफर-1




गोविंदघाट से घाघरिया, 14 किमी ट्रैकिंग मार्ग
खोज गुरुगोविंद सिंहजी की आत्मकथा की
गुरुगोविंद सिंहजी से बचपन से ही गहरा लगाव रहा है। घोड़े पर सवार, हाथ में बाज लिए एक यौद्धा संत की छवि जहाँ भी दिखती, अंतरमन को झंकृत कर देती। जब स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में गुरुसाहिबान का बखान सुना तो श्रध्दा और भी बढ़ गई। कहीं पढ़ा कि गुरुजी ने पूर्वजन्म में हिमालय में घोर तप किया था, जिसका जिक्र उनकी आत्मकथा में मिलता है। मूल उद्धरण को जानने के लिए अब आत्मकथा खोजने की कवायद शुरु हो गई। कई वर्षों तक पुस्तक स्टालों पर खाक मारता रहा, पर मिली नहीं। अंत में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला में अमृतसर से आए एक सिक्ख सज्जन को जब हमारी खोज का अहसास हुआ, तो वो सुंदर नीले मखमली कपड़े में लिपटा विचित्र नाटक हमको भेंट कर गए। लगा जैसे हमारे मन की मुराद पूरी हो गई।
यात्रा की पृष्ठभूमि
पुस्तक पढ़ते-पढ़ते स्पष्ट हुआ कि पूर्व जन्म में गुरु गोविंद सिंहजी ने किस स्थल पर कैसे योग साधा था। उस स्थल, हेमकुण्ड साहिब को देखने का ध्रुव लक्ष्य बन चुका था। विभाग के पत्रकारिता छात्रों के यात्रा वृतांत पाठ्यक्रम के अंतर्गत किसी स्थल का चयन करना था। जब घूमेंगे तभी तो यात्रा वृतांत बनेगा। लगभग 15 छात्र-छात्राओं व 4-6 शिक्षकों के दल के साथ हेमकुंड साहिब यात्रा का निर्णय हुआ। 2012 का सितम्बर का महीना था। तिथि निर्धारित हो चुकी थी। इस तीर्थ स्थल के मार्ग की दुर्गमता का पूरा बोध नहीं था। मोटा अनुमान था कि काफी ऊँचाई पर है, ठंड़ काफी होगी। हवा का दवाब अधिक व ऑक्सीजन कम होगी। 
 हम अपने दल की शारीरीक-मानसिक दशा से परिचित थे। मोटा अनुमान था कि कुछ तन व मन से कमजोर बच्चों को गोविंद घाट में ही रोकना पड़ सकता है और कुछ को घाघरिया बेस कैंप में। हेमकुंड की 15500 फीट बर्फीली ऊँचाई तक कुछ गिने-चुने रफ-टफ लोग ही जा पाएंगे। जो जितना घूम लिया, उसका वर्णन ही तो करना है, यात्रा वृताँत बन जाएगा और मन की इच्छा भी पूरी हो जाएगी।

विषम परिस्थितियों की चुनौती का पहाड़
यात्रा की तिथि निर्धारित हो चुकी थी। इसके 2-4 दिन पहले ही रास्ते में गढ़वाल क्षेत्र के दो गाँव बादल फटने से पूरी तरह से ध्वस्त हो चुके थे। देहरादून में अपने पत्रकार मित्र से क्षेत्र का हालचाल पता करने को कहा तो रिपोर्ट आई कि इस सीजन में यहाँ जाना मूर्खता होगी। लेकिन प्रकृति प्रकोप की ये दुश्वारियाँ अटल संकल्प के साथ मचल रहे मन को कहाँ रोकने वाली थी। मन में अदम्य उत्साह के सामने चुनौतियों का पहाड़ बौना साबित हो रहा था। अगाध आस्था थी ह्दय में कि गुरु के धाम में, प्रकृति माँ की गोद में ही तो जा रहे हैं सब ठीक हो जाएगा। बाकि जो होगा देखा जाएगा। अच्छे से अच्छे की संभावना और बुरी से बुरी परिस्थिति के लिए मन से तैयार होकर तैयारी में जुट पड़े।
आश्चर्य तब लगा जब पूरे रास्ते भर कहीं बारिश, भूस्खलन और किसी तरह की प्राकृतिक आपदा का कोई सामना नहीं करना पड़ा। अखबार पढ़कर जो भयावह धारणा बनी थी, वह रास्ते में तिरोहित होती रही। पूरी यात्रा भर प्रकृति जैसे हमारे साथ थी। दैवी कृपा का अहसास हर पड़ाव पर होता रहा।  
20-22 पथिकों के काफिले को लिए अपना वाहन देसंविवि से चल पड़ा। ऋषिकेश से होते हुए हमारा गढ़वाल हिमालय में प्रवेश हुआ। गंगा के किनारे, हल्की धुंध की चादर ओढ़े पर्वतों के बीच सफर खुशनुमा अहसास देता रहा।
पहली बार पहाड़ों का सफर कर रहे पथिकों का उत्साह, उमंग और मस्ती देखते ही बन रही थी। इस तरह ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर से होते हुए रुद्रप्रयाग, जोशीमठ के रास्ते अंत में हम शाम तक लगभग 8-10 घंटे के सफर के बाद गोविंदघाट पहुँचे।  
 
सफर का पहला पड़ाव - गोविंदघाट से पुलना गाँव तक
गोबिंदघाट गुरुद्वारा हमारे रात का ठिकाना बना। यहाँ गुरुद्वारे में ठहरने-भोजनादि की उत्तम व्यवस्था है। यहीँ पर गुरुद्वारे में रात्रि विश्राम किए। अपनी योजना के अनुसार तन-मन से कमजोर बच्चों को यहीं रुकने की योजना थी, लेकिन कोई भी रुकने को तैयार न था। सब आगे बढ़ने के लिए मचल रहे थे। इनका उत्साह देखकर लगा कि इन्हें यहाँ छोड़ना अन्याय होगा। 
प्रातः भोर होते ही काफिला गोविंदघाट से घाघरिया की ओर चल पड़ा। भोर के धुंधलके में पर्वत जैसे समाधिस्थ ध्यानमग्न तपस्वी जैसे लग रहे थे। प्रातः की इस नीरवता में बद्रीनाथ धाम से उतर रही गर्जन-तर्जन करती हुई अलकनंदा नदी के सांय-सांय करते घनघोर स्वर एक अलग ही स्थल पर होने का तीखा अहसास दे रहे थे। अलकनन्दा के तंग पुल को पार करते हुए हम अब हल्की चढ़ाई के साथ आगे बढ़ रहे थे। 

पहली वार पहाड़ की चढाई कर रहे पथिकों को थोड़ी ही देर में अहसास हो चुका था कि पहाड़ की चढ़ाई दौड़ कर पार नहीं की जा सकती। उत्साह के साथ अपार धैर्य का संगम और सांस की लय के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ना होता है। यही जीवन में लम्बी दूरी तय करने बाले लोगों की भी रीत है।  शनै-शनै पर्वत लंघे की उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही थी।
 रास्ते की पहली मानव बस्ती पुलना गाँव है, काफिला इसी ओर बढ़ रहा था। 3-4 किमी की चढ़ाई के बाद दम फूल रहा था, बदन पसीने से तर-बतर हो रहा था और कुछ थकान हावी हो रही थी। अतः अल्प विश्राम के लिए एक ढावे पर रुक गए। ढ़ाबे में बैठकर चाय की चुस्की के बहाने आगे की यात्रा के लिए दम भरते रहे।
पुलना गाँव सड़क के साथ ही नीचे पु्ष्पावती नदीं तक फैला था। गाँव के पीछे आसमान छूता पहाड़ खड़ा था तो इसके पार पहाड़ों से झरते झरने। और गाँव के नीचे तेजी से अलकनंदा में मिलने के लिए जोर-शोर के साथ आगे बढ़ती हुई पुष्पावती, जो क्रमशः फूलों की घाटी और हेमकुंड से बहती हिमनदियों का सम्मिलित रुप है।

अगली मानव बस्ती भ्यूंडर गाँव की ओर बढ़ते पग
आगे का रास्ता लगभग सीधा था। सामने दाईं ओर नदी के पार पहाड़ों से झरते झरनों का नजारा सबको आकर्षित कर रहा था। राह तंग घाटी से होकर आगे बढ़ती है। राह भर निर्मल जल के स्रोत पथिकों का स्वागत करते हैं। अपनी यात्रा से बापिस आ रहे पथिक, बाहे गुरुजी का खालसा बाहे गुरुजी की फतह के गुंजार के साथ स्वागत कर रहे थे। रास्ते में ही सूर्योदय का अद्भुत नजारा देखने लायक था। 

उत्तुंग शिखरों से नीचे उतर रही इसकी स्वर्णिम आभा चित्त को आल्हादित कर रही थी। इन्हीं दृश्यों को निहारते हुए रास्ते में एक विश्राम स्थल मिला, जिसे स्नो व्यू प्वाइंट नाम दिया गया है। यहाँ से बर्फ ढ़के पर्वत शिखरों का नजारा देखते हुए थकान से कुछ हल्का हुए।
यहाँ से हेमकुंड की ओर के पर्वत शिखर की पहली झलक मिल रही थी। मंजिल की पहली झलक यात्रा के रोमाँच और उत्साह को बढ़ा रही थी। आगे कुछ किमी के बाद हम एक ऐसे बिंदु पर थे जहाँ एक नदीं पुष्पावती नदी में दाईं ओर से मिल रही थी। पता चला कि यह नदी काकभुशुंडी ताल की ओर से आ रही है। काकभुशुण्डी ताल के वारे में पौराणिक मान्यता है कि इसी के किनारे रामभक्त काकभुशुण्डी ने पक्षीराज गरुड़ का संशय दूर किया था। सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेवजी की भी यहाँ के यात्रा के जिक्र मिलते हैं। इस ओर भारी बर्फ से लदे हाथी पर्वत के दर्शन हमें रोमाँचित कर रहे थे।

कुछ देर सीधे रास्ते पर चलते हुए आगे अब कुछ चढाई के साथ बढ़ रहे थे। यह भ्यूंडर गाँव का प्रवेश था। गाँव में पुष्पलता(हेमगंगा) विकराल वेग के साथ भयंकर गर्जन करती हुई नीचे बह रही थी। चट्टानों के बीच इसका दुधिया जल एक अलग ही नजारा पेश कर रहा था। यहीं पर नदी के किनारे बने ढ़ाबे में हल्के चाय-नाश्ता के साथ काफिला तरोताजा हुआ।
घाघरिया बेसकेंप की ओर
आगे भ्यूंडर गाँव के पुल को पार कर दाईं और से मार्ग अब घाघरिया की ओर बढ़ता है। पुल से नीचे बह रही हेमगंगा का निर्मल जल नेत्रों को गहरी शांति व शीतलता दे रहा था। आगे चढ़ाई क्रमशः बढ़ती जाती है। खड़ी चढ़ाई के साथ हम पत्थरों की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में जंगली अखरोट के बड़े-बड़े पेड़ हमारा स्वागत कर रहे थे। पुष्पलता(हेमगंगा) अब दिख तो नहीं रही थी, लेकिन इसकी सांय-सांय की आवाज कानों तक स्पष्ट थी। 


नदी के उस पार पर्वत शिखर व संकरी घाटी एक अलग ही दुनियाँ में प्रवेश की अनुभूति दे रहे थे। काफिले में कुछ सदस्य अपना ही बोझ नहीं संभाल पा रहे थे, अतः इनका सामान टीम के मजबूत सदस्यों के कंधों पर चढ़ रहा था। इस तरह टीम भावना के साथ पूरा काफिला घाघरिया बेसकेंप में दोपहर बाद तक पहुँच गया था। सभी थककर चूर थे। स्थानीय गुरुद्वारे में डोरमेट्री में ठहरने की व्यवस्था हो चुकी थी। यहीं पर विश्राम भोजन के बाद बाहर आसपास घूमने निकले। (....ज़ारी) 
यात्रा का अगला भाग आप  आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैंहेमकुण्ड साहिब यात्रा, भाग-2

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...