रविवार, 20 मार्च 2016

यात्रा वृतांत – अमृतसर सफर की कुछ यादें रुहानी, भाग-1


स्वर्ण मंदिर अमृतसर के दिव्य परिसर में
 
यह हमारी दिन के उजाले में अमृतसर की पहली यात्रा थी। सामुदायिक रेडियो की कार्यशाला के उद्देश्य से अमृतसर जाने का संयोग बना था। कार्यशाला के व्यस्त शेड्यूल के बीच अधिक घूमने की गुंजाइश न थी। सो तीन दिवसीय कार्यशाला में फुर्सत के पलों में दूसरे दिन स्वर्ण मंदिर जाने का सुयोग बना और अंतिम दिन विदाई समारोह के बाद, ट्रेन की वापसी के बीच के समय में डेरा व्यास दोनों यात्राएं एक वेजोड़ रुहानी अनुभव के रुप में स्मृति पटल पर अंकित रहेंगी।
11 मार्च को ही सुबह हम दून-अमृतसर एक्सप्रेस से 800 बजे अमृतसर पहुंच चुके थे। रास्ते में ही सुबह हो चुकी थी। सो बर्थ से उतरते ही बाहर ट्रेन के दोनों ओर हरे भरे गैंहूं से लहलहाते खेत हमारा स्वागत कर रहे थे, जिनका हरियाली भरा नजारा आंखों को शीतलता और मन को ठंडक दे रहा था। रास्ते में फलों के बगीचे भी दिख रहे थे, संभवतः फूलों को देखकर नाशपाती, बागुकोषा के लग रहे थे और कहीं कहीं आम के। लेकिन बहुतायत में गैंहूं के खेत ही मिले। अमृतसर शहर के बाहर ट्रेन किसी पुल के नीचे काफी देर खड़ी रही। संभवतः हम शहर में प्रवेश कर चुके थे। यहाँ से पुल से आवागमन करती गाड़ियों, पुल के पास सफेदा के ऊँचे ऊँचे पेड़, सामने से गुजरती दूसरी लोक्ल ट्रेन और इनमें भाग दौड़ करती लोक्ल सवारियों की कवायद, सब तमाशे की तरह हम देख रहे थे। इसी बीच चाय की चुस्की के बीच इंतजार के इन पलों को यादगार बनाते रहे।
रास्ता खुलते ही थोड़ी देर में ट्रेन आगे बढ़ चुकी थी और कुछ ही मिनटों में हम अमृतसर स्टेशन पर थे। ओवरब्रिज को पार करते हुए हम स्टेशन के बाहर निकले। स्टेशन का प्रवेश द्वार अपने ऐतिहासिक वास्तुशिल्प के साथ अपनी विशिष्ट पहचान व परिचय दे रहा था। स्टेशन के पीछे पार्किंग के पार पीपल और वट के विशाल पेड़ यहाँ के पुरातन इतिहास की गवाही दे रहे थे। अपना गन्तवय अधिक दूर नहीं था। सो हमने रिक्शा में ही जाना उचित समझा, ताकि शहर का पूरा नजारा ले सकें। आसमान में बादल छाए हुए थे। काले काले बादल कभी भी बरसने की चेतावनी दे रहे थे। रात को शायद बारिश हो भी चुकी थी। जैसे ही हम आगे बढ़ते गए हल्की हल्की बारिश शुरु हो चुकी थी। हम इसको अपना स्वागत अभिसिंचन मानते हुए इसका आनन्द लेते रहे। रास्ते में सेमल के गगनचुम्बी वृक्षों पर लदे सुर्ख लाल फूल शहर में वसंत की वहार का परिचय दे रहे थे। आम के पेड़ों पर फूटे बौर भीनी-भीनी खुश्बू के साथ यात्रा का सुखद अहसास दे रह। झंडों से जड़े चौराहे को पार करते हुए हम आगे ऊँचे और भव्य भवनों के बीच बढ़ रहे थे। 
कुछ ही मिनटों में हम अपने गन्तव्य स्थल पर पहुँच चुके थे। अभी वर्कशॉप में आधा घंटा बाकि था, सो फ्रेश होकर हम सीधा कार्यशाला कक्ष पहुँचे। दिन भर कार्यशाला से सामुदायिक रेडियो की अवधारणा स्पष्ट हुई और समझ आया कि कैसे यह पब्लिक और प्राइवेट ब्रॉडकास्टिंग से भिन्न है। सफलतापूर्वक चल रहे सामुदायिक रेडियो के अनुभव बहुत प्रेरक और उत्साहबर्धक लगे। अगले दो दिनों में सामुदायिक रेडियो के विभिन्न पहलुओं से रुबरु होते रहे। सदस्यता पाने के लिए फार्म भरने की बारकियाँ समझ में आईं। बेसिल के प्रेजन्टेशन से आवश्यक तकनीकि जानकारियाँ मिली। सूचना और प्रसारण मंत्रालय से आए डॉ. मुनीश जी का भागीदारों से सीधा संवाद बहुत ह्दयस्पर्शी लगा। सबसे ऊपर कैंपस रेडियो के पितामह एस श्रीधरण जी से सीधा संवाद इस कार्यशाला की जान रहा। अंत में सीआरए टीम द्वारा सक्रीनिंग ड्रिल के साथ हम कार्यशाला से सीखे ज्ञान को एक सार्थक अनुभव के रुप में समझने का मौका मिला। जम्मु-काश्मीर, पंजाव, हरियाणा, उत्तराखण्ड और हिमाचल से लगभग 40 भागीदार आए थे। मीडिया हाइप के इस युग में सामाजिक परिवर्तन के एक सार्थक माध्यम के रुप में सामुदायिक रेडियो की उपयोगिता समझ में आ गयी।



स्वर्ण मंदिर – दूसरे दिन शाम को फुर्सत के पलों में स्वर्णमंदिर जाने का कार्यक्रम बना। बिना स्वर्ण मंदिर के अमृसर की यात्रा को अधूरा ही मान जाएगकब से यहाँ आने की योजना बन रह थी। पिछले ही साल दिसम्बर माह में लुधियाना में अपने 1986 बी.टेक. बैच की 25वीं साल गिरह पर अपने सहपाठी कंवलजीत आनन्द के साथ रात को 2 बजे ही यहाँ चल दिए थे और सुबह पाँच बजे से इसके दर्शन लाभ का सुअवसर मिला था। यह दर्शन एक अमिट सी छाप रुह पर छोड़ चुका था। स दिन एक झलक ही ले पाए थे। आज उसका अगला कदम बढ़ाने का सुयोग बन रहा था। हल्की बारिश के बीच रास्ते की तमाम बाधाओं को पार करते हुए हम गुरुद्वारा गेट पहुँचे। बहाँ से परिसर की भव्यता देखते ही बनती है। जुता स्टैंड पर जुता उतारकर हम अंदर प्रवेश किए। जुता स्टैंड पर सेवादारों का सेवाभाव दिल को छूने वाला रहता है। आगे जल बावड़ी को पार करते हुए मुख्य गेट पर पहुँचे। यहाँ प्रवेश करते ही सामने स्वर्ण मंदिर का विहंगम दृश्य एक आलौकिक अनुभव रहता है। आकाश में चाँद, सरोवर के जल में झिलमिलाती स्वर्णिम व रंगविरंगी आभा, एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देते हैं। 

ज्ञातव्य हो कि यहाँ के पवित्र सरोवर के नाम से शहर का नाम अमृतसर पड़ा है। मान्यता है कि यहाँ कभी घना जंगल था और इनके बीच में झील। यह शांत-एकांत स्थल साधु संतों की साधना स्थली, आश्रय स्थली थ बुद्ध भगवान ने भी यहाँ ध्यान तप किया था। श्री गुरु नानक देव जी ने इस स्थल में ास किया था। सिक्खों के चौथे गुरु राम दास ने इसकी नींव रखी और पांचवे गुरु अर्जुनदेव के समय में यह 1604 ईंस्वी में बनकर तैयार हुआ। सरोवर के मध्य रमंदिर साहिव में गुरुग्रंथ साहब की पूजा-अर्चना व पाठ प्रातः भौर से लेकर देर रात तक चलता रहता है, और इनकी पावन धुन से तीर्थ परिसर गुंजायमान रहता है।

दर्शनार्थ आयी भीड़ में एक अनुशासन, दर्शन का भाव, एक सकारात्मक लय, गुंज रहे शब्दकीर्तन की दिव्य ध्वनियाँ एक जीवंत जाग्रत तीर्थ का गाढ़ा अहसास देते हैं। इसके साथ ही सरोवर में निश्चिंत भाव से तैर रही मच्छलियाँ, संसार सागर में भटक रहे मनुष्य जीवन के गुढ़ रहस्य को प्रकट करती हैं, कि गुरु शरण में आया जीव संसार सागर में इन मच्छलियों सा निर्दन्द-निश्चिंत भाव से तैर सकता है, जीवन का सही आनन्द उठा सकता है। गुरुभाव से कटा जीव सामान्य मछलिों की भांति तमाम असुरक्षा भाव के बीच एक एक दुःखी-संतप्त जीव जीने के लिए अभिशप्त होता है।

सरोवर के किनारे परिक्रमा मार्ग पर दायीं ओर से आगे बढ़ते हुए मुख्य द्वार आता है, जहाँ से सीधे हरमंदिर साहब में प्रवेश होता है। दर्शनार्थियों के साथ हम आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे मुख्य मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। शब्द कीर्तन की धुन अंतःकरण में दिव्य भावों का संचार कर रही थी। संगत बीच बाले पथ पर पाठ करते हुए आगे बढ़ रही थी। मुख्य द्वार के पार अंदर गुरु ग्रंथ साहिव को माथा टेककर हम बाहर निकले। पीछे सरोवर के अमृत जल से अभिसिंचन करते हुए आगे बढ़े, प्रसाद लेकर परिक्रमा पथ पर आगे बढ़े। लगभग एक-ढेड़ घंटे खडे खड़े पैर थककर चूर हो चुके थे, सो कुछ पल किनारे में बिछी दरियों पर पाल्थी मारकर...ध्यान चिंतन में कुछ पल निमग्न रहे।

इसके बाद लंगर हाल में आए। यहाँ तीन मंजिलों में प्रसाद का वृहद आयोजन देखने लायक था। हजारों लोग एक साथ प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। पता चला कि रोज लगभग एक लाख दर्शनार्थी इस लंगर में भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं। यहाँ की अनुशासन, व्यवस्था देखने लायक थी कि किस तरह व्यवस्थित ढंग से सबको प्रेम पूर्वक प्रसाद का वितरण हो रहा था। सदा से ही गुरुद्वारे की लंगर व्वस्था के हम मुरीद रहे हैं। किसी भी गुरुद्वारे में यह पारमार्थिक व्यवस्था अनुकरणीय लगी है। भोजन-प्रसाद के बाद बाहर हम आए तो स्वयं सेवक जूझे बर्तनों को हाथ से लेते गए। गिलास, प्लेट व वर्तनों को साफ करने की स्वयंसेवक व्यवस्था लाजबाव दिखी। सैंकड़ों नहीं हजारों सेवादार यहाँ सफाई कर रहे थे। एक प्लेट कई चरणों में साफ होकर चकाचक साफ होकर बाहर निकल रही थी। अपनी सेवा में कोई छोटे बढ़े का भाव नहीं। सब अपनी पहचान, पद, जाति, धर्म, रुत्वा भूल कर गुरुकाज में एक भक्त की भांति मग्न – शायद यही तो आध्यात्मिक समाजवाद है, जिसके आधार पर युगऋषि सतयुग की कल्पना करते रहे हैं।
परिसर के परिक्रमा पथ पर बापिस आते हुए, हम स्वर्ण मंदिर को प्रमाण कर, बाहर जुता घर की ओर आएयहाँ से ऑटो से बापिस गन्तव्य की ओर कूच किए, चित्त पर स्वर्ण मंदिर की एक भाव भरी अमिट छाप लिए हुए, कि अगली वार थोड़ा अधिक समय लेकर इसके दर्शन करेंगे, यहाँ के भावसागर में ओर गहरी डुबकी लगाएंगे
    अमृतसर यात्रा का अगला भाव आप नीचे दिए लिंक में पढ़ सकते हैं -

सोमवार, 7 मार्च 2016

जेएनयू प्रकरण – एक आम भारतीय शिक्षक के जेहन को कचोटते सवाल



जेएनयू के बारे में अधिक नहीं जानता था, न ही, वाम विचारधारा की गहराइयों को। लेकिन जब से 9 फरवरी को देश के प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्र में देशद्रोही नारों का विस्फोट देखा, प्रकरण की नित नयी परतें सामने उधड़ती गईंं। यह विचारधारा युवा विद्यार्थियों की सोच में देश की बर्वादी का जहर भी घोल सकती है, समझ से परे था। गरीब-शोषितों की समता-एकता की आबाज के रुप में तो इसके स्वरुप को जानता था, लेकिन देश को खंडित करने वाली इसकी खतरनाक सोच से परिचित न था। घटना के बाद नित्य एक विद्यार्थी की भांति रोज घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हूँ, देश-समाज व जीवन को संवेदित-आंदोलित करते इस घटनाक्रम के प्रकाश में किसी सार्थक समाधान तक ले जाते निष्कर्की खोज में
नित्य अपने पत्रकारिता विभाग में 12-14 हिंदी-अंग्रेजी के अखवारों पर एक नजर डालने का मौका मिलता है, हर दिन की घटनाओं से टीवी पर रुबरु होता हूँ, जो रह जाती हैं, वे सोशल मीडिया पर वायरल होते वीडियोज व शेयर से आ जाती हैं। सारा मंजर, सारा हंगामा, सारा खेल-तमाशा मूक दर्शक बन कर देखता रहा हूँ प्रकरण को पूरी तरह से समझने की कोशिश में कि ये देश में हो क्या रहा है। हम ये किस दौर से गुजर रहे हैं, देश व समाज किस दिशा में जा रहा है और विशेषक उच्च शिक्षा के केंद्र, जहाँ से हमेशा परिवर्तन की पटकथा लिखी जाती रही है। हर दिन बदलते घटनाक्रम के बीच प्रतिक्रिया देने से बचता रहा हूँ, लेकिन अब शायद कुछ कहने का समय आ गया है।
कुछ बातें जेहन को कचोट रही हैं, कुछ सवाल महासवाल बनकर खड़े हो गए हैं, कुछ निष्कर्ष बुद्धि से नहीं, ह्दय को आंदोलित कर फूट रहे हैं। उन्हें शिवरात्रि के पावन दिन मित्रों, सुधी पाठकों के सामने शेयर कर रहा हूँ। स्पष्ट कर दूं कि मैं राजनीति का पंडित नहीं, इसका सामान्य बोध रखता हूँ। न ही किसी वाद, प्रतिवाद का अंध समर्थक। भारत का एक आम नागरिक हूँ, एक शिक्षक हूँ, जिसमें एक सामान्य इंसान की तरह अपनी मातृभूमि के प्रति सहज-स्फुर्त अनुराग है। समाज में सकल जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-लिंग, सीमाओं के भेदभाव के पार एकता-समता-शुचिता का पक्षधर हूँ, समर्थक हूँ। भारत की अनेकता में एकता की शक्ति को मानता हूँ। अपने देश की शाश्वत-सनातन ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध अद्वितीय-अनुपम सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत व इसकी कालजयी सत्ता के प्रति आश्वस्त हूँ और इनके साथ भारत को विश्व के अग्रणी देशों की कतार में शामिल होता देखना चाहता हूँ। देश के साथ पूरे विश्व में अमन-चैन-शांति का हिमायती हूँ। संक्षेप में सत्यं, शिवं, सुन्दरं को जीवन का प्रेरक दर्शन मानता हूँ। अपनी जड़ों से जुड़ी वैज्ञानिक सोच वाले अध्यात्म, धर्म के साथ मानवता और अपनी सनातविरासत के साथ आधुनिकता  के संगम-समन्वय वाली संस्कृति में जीवन के समग्र समाधान की आश रखता हूँ।
जेएनयू प्रकरण ने, एक आम नागरिक की तरह हमें भी हिलाकर रख दिया है। देश की बर्वादी के नारों को सुनकर किसी भी नागरिक क खून में उबाल आना स्वाभाविक है। माना इस दौरान प्रसारित 5-7 वीडियो में 1-2 के साथ छेड़खानी हुई। इसके लिए वे मीडिया घराने कटघरे में हैं और इसके चलते आज टीवी माध्यम की विश्वसनीयता अपने निम्नतम स्तर पर है। इन्हें अपने गिरेवान में झांकने व गहन आत्म समीक्षा की जरुरत है। इनके आधार पर जो उन्माद का माहौल किसी एक व्यक्ति के प्रति खड़ा हुआ, जो ज्यादतियाँ कोर्ट में न्याय दूतों द्वारा हुई, वे भी घटना से जुड़ा एक काला अध्याय है। इस पर न्यायिक प्रक्रिया अपने ढंग से सक्रिय है। सरकार द्वारा पूरे प्रकरण क शुरुआती दौर की जल्दवाजी में हुई मिसहेंडलिंग भी उचित नहीं थी
पूरी प्रक्रिया में छात्र नेता कन्हैया की सशर्त रिहाई और उसका जेएनयू में संबोधन तक की घटना के बाद मीडिया, सत्ता पक्ष, प्रतिपक्ष, न्याय व्यवस्था और जेएनयू – सबकी भूमिका अग्नि परीक्षा से होकर गुजरी है। इन विप्लवी पलों से गुजरते हुए पूरा देश एक गहन मंथन की प्रक्रिया से गुजरा है और अभी मंथन जारी है। इसी घटना के समानान्तर सीमा पर और देश के अंदर हमारी रक्षा, सुख-चैन की खातिर कितने वीर सपूतों, जवानों को प्राणों की मौन आहूति देते देखा है।
जो बातें, राष्ट्रीय जीवन के इन विप्लवी क्षणों में स्पष्ट होती हैं, इन पर विचार करना लाजमी हो जाता है।
1.   टीवी माध्यम की निंदनीय फोर्जरी (छेडखान) के बावजूद यह तथ्य नजरंदाज नहीं होता कि देश विरोधी नारे नहीं लगे थे। जेएनयू के बाहर भी दूसरे विश्वविद्यालयों से इनकी गूँज उठी थी। शिक्षा के उच्चस्तरीय केंद्रों से जहाँ समाज निर्माण, राष्ट्र निर्माण की बातें होनी चाहिए थीं, वहाँ से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम, देश को तोड़ने की ये बातें कैसे उठ रही हैं, गंभीर चिंता का विषय है। जेएनयू की अकादमिक गतिविधियों के प्रति एक फौरी सी जानकारी थी, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के गढ़ के रुप में, लेकिन इस घटना ने इस प्रगतिशील सोच पर गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़र दि है। प्रश्न उठता है, कि युवाओं के जेहन में यह विष बीज कहां से वोए गए। इनको खाद-पानी देने वाला पोषण कहाँ से मिलता रहा। देश विद्रोही नारों को विश्व का कौन सा देश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बर्दाश्त कर सकता है। बुद्धिजीवियों को अपने भावशून्य कुतर्कों और अपन बौद्धिक उछलकूद (Intellectual gymnastic) से देश के आम जन को भरमाने की कुचेष्टाओं को रोज होते देखकर आश्चर्य होता है।
2.    इसी के साथ कन्हैया का जेल से छूटने के बाद के भाषण पर विचार आता है। अपने वक्तृत्व कौशल के आधार पर दर्शकों को अवश्य मुग्ध किया है। लेकिन यह एक जिम्मेदार छात्रनेता से अधिक एक राजनेता का भाषण था। इसके साथ कन्हैया ने अपना राजनैतिक भविष्य सुनिश्चित कर लिया है, लेकिन इनके साथियों द्वारा की गई देश विद्रोही कारगुजारियों का इन्हें कोई गिला शिक्वा नहीं है, बल्कि उनकी बेकसूर रिहाई की माँग उठती दिखी। इनकी गरीबी, समता आदि के जुम्ले राजनैतिक हथियार के रुप में उपयोग हो सकते हैं, लेकिन ये शांति सद्भावपूर्ण समग्र विकास और न्याय की अवधारणा को सुनिश्चित करेंगे, इस पर संदेह होता है। सामयिक तौर पर मीडिया ने इन्हें नायक जरुर बना दिया है, लेकिन इस देश की, इस जमीं की तासीर को समझे बिना यह नायकत्व कितना देर तक टिकता है, देखना बाकि है।
3.  राजनैतिक दलों को जिस मुद्धे पर एक जुट होना चाहिए था, वह इनकी वोट वैंक की कुत्सित राजनीति का शिकार हो गई। शायद यह देश का दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के संवेदनशील मुद्दे पर, जहाँ पूरे विश्व में एक सुर से देश की आवाज बुलन्द होनी चाहिए थी, वहाँ तमाम विपक्षी राजनेता विघटनकारी तत्वों के पक्ष में समर्थन देते खड़े दिखे। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर सत्ता पक्ष से भी अधिक संवेदनशील, धीर व संतुलित हेंडलिंग की उम्मीद थी, जिसे बीच बीच में बाधित होते देखा गया।
4.  आश्चर्य तब हुआ जब मीडिया का एक वर्ग भी इनके साथ सुर मिलाता दिखा। बड़े-बड़े पत्रकारों के चरित्र इसमें उजागर हुए हैं। एक दो पत्र को छोड़ अंग्रेजी प्रिंट मीडिया विघटनकारी तत्वों के पक्ष में खड़ा दिखा। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर भी इनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रट्ट समझ से परे लगी। कुछ हिंदी पत्रों को भी इनकी देखादेखी में पासा पलटते देखा। पूरे प्रकरण की मीडिया कवरेज एक शोध-अध्ययन की विषय वस्तु है।
5.   कुछ टीवी चैनलों की भूमिका भी संदेह के घेरे में दिखी। कुछ चैनल जहाँ प्रकरण को संजीदगी से पेश करते रहे, कुछ एक को इनका महिमामंडन करते देखा गया। प्रकरण से जुड़े फुटेज से फोर्जरी अवश्य चिंता का विषय है। आश्चर्य नहीं कि इस सबके चलते इस समय टीवी माध्यम की विश्वसनीयता गहरे संकट से गुजर रही है।

पूरे प्रकरण में मोटी मोटी बातें, जो समझ में आ रही हैं -
a.     जो नारे लगे हैं, इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम देना वेमानी होगा। नारों के पीछे की खतरनाक सोच की जड़ों तक जाना होगा। जिस विचारधारा में अपने देश-राष्ट्र-मातृभूमि-संस्कृति के प्रति अनुराग का भाव न हो, उससे सजग-सावधान रहने की जरुरत है। जो सृजन की बजाए ध्वंस में विश्वास रखती हो, जिसमें सत्यं, शिवं, सुंदरं का भाव बोध न हो, वह किसी भी तरह वरेण्यं नहीं हो सकती।
b.    शिक्षा के उच्चतर केंद्रों को कौरे बौद्धिक विलास, विकृत मानसिकता और भोगवादी संस्कृति का अड्डा बनने से रोकना होगा। अपनी जड़ों से जुड़कर, आम जनता की समस्याओं के समाधान केंद्र के रुप में, राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला के रुप में इनको रुपांतरि करना होगा।
c.   विश्वविद्यालयों को ज्ञान साधना के उच्चस्तरीय केंद्रों के रुप में अपनी भूमिका निभानी होगी, जहाँ वैज्ञानिक, प्रगतिशील और मूल्यनिष्ठ समग्र सोच में शिक्षित-दीक्षित युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके। समाज व देश को तोड़ने वाली राजनीति से इन्हें जितना दूर रखा जाए, शायद उतना वेहतर होगा।
d.    इस महत कार्य में शिक्षकों की भूमिका अहम है। अपने श्रेष्ठ आचरण, समग्र सोच व दूरदृष्टि के साथ युवा पीढ़ी में श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण उनका पावन कर्तव्य है। छात्रों में जीवन, समाज व विश्व के प्रति नीर-क्षीर विवेक और समग्र दृष्टि का विकास उनकी सफलता का मापदंड होगा
e.   तभी हम युवाओं की अजस्र ऊर्जा कसकारात्मक नियोजन कर समाज व राष्ट्र निर्माण क महत उद्देश्य को पूरा कर पाएंगे।   शायद तभी हम देश की रक्षा हित सीमाओं पर, सामाजिक जीवन के विभिन्न मोर्चों पर खून पसीना बहा रहे, गुमनामी में शहीद हो रहे हर जवान, किसान, श्रमिक, संत, सुधारक व हर आम इंसान के अनुदानों से पोषण पा रही अपनी शिक्षा के लिए मिली सुख-सुविधाओं, सुरक्षा व संरक्षण के साथ न्याय कर पाएंगे।
नहीं तो देश विद्रोही नारा लगाए बिना भी हम आत्मद्रोह, समाजद्रोह की श्रेणी में खुद को खडा पाएंगे, सरकार के कटघड़े में न सही, अपनी अंतरात्मा के कटघड़े में।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

स्वाध्याय-सत्संग, परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा

अध्यात्म-विद्या का प्रथम सुत्र यह है कि प्रत्येक बुरी परिस्थिति का उत्तरदायी हम अपने आपको मानें। बाह्य समस्याओं का बीज अपने में ढूंढें और जिस प्रकार का सुधार बाहरी घटनाओं, व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में चाहते हैं उसी के अनुरुप अपने गुण-कर्म-स्वभाव में हेर फेर प्रारम्भ कर दें। भीतरी सुधार बाहरी समस्याओं को सुधारने को सबसे बड़ा, सबसे प्रभावशाली उपाय सिद्ध होता है। माना की दूसरों की गलतियाँ और बुराईयाँ भी हमें परेशान करती हैं और अनेक प्रकार की बाधाएं खड़ी करके प्रगति का द्वारा रोकती हैं। संसार में बुरे लोग हैं और बुराईयाँ भी कम नहीं हैं इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता, पर साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई बस्तु सजातीय एवं अनुकूल परिस्थितियों से ही बढ़ती है एवं पनपती है। बुराई को अपना रुप प्रकट करने का अवसर तभी मिलेगा, जब बैसी ही बुराई अपने अन्दर भी हो। अपना स्वभाव उत्कृष्ट हो तो बुरे लोगों को भी झक मारकर निरस्त होना पड़ता है। (पृ.3)

 कोई अध्यात्मवादी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसे ग्रहदशा ने, परिस्थितियों ने या दूसरों ने सताया है। वह सदा यही मानेगा कि अपने भीतर कोई कमी रह गई जिसके कारण दुष्टता को सफल होने का अवसर मिल गया। प्रत्येक बाह्य आघात या असफलता का कारण वह अपने अन्दर ढूँढ़ता है और जो त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं उन्हें सुधारनें के लिए जुट जाता है। इस तरीके को अपनाने से तीन-चौथाई समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक चौथाई जो अनिवार्य बनी रहती हैं उन्हें वह उपेक्षा में अपनी सहनशीलता के बलबूते हँसते-हँसते भुगत लेता है। कठिनाई के कारण दूसरे लोग जिस पर उद्विग्न रहते और रोते-चिल्लाते हैं बैसी परिस्थिति उसकी गम्भीरता उत्पन्न ही नहीं होने देती। तितिक्षा और सहनशीलता के बल पर बड़े से बड़े अभाव एवं कष्टों को हँसते हुए भूलाया या भुगता जा सकता है। (पृ.4)

 इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि बाहर से जो बाधाएं उपस्थिति होती हैं, उन्हें हटाने का कोई प्रयत्न न किया जाए। वह तो करना ही चाहिए। संघर्ष में ही जीवन है। प्रत्येक पुरुषार्थी को मार्ग की बाधाएं हटाकर ही उनसे छूटकर ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है। पर छूटने की शक्ति भी तो आत्म-निर्माण से ही प्राप्त होती है, यदि मनुष्य अस्त-व्यस्त मनोभूमि का हुआ तो उसके लिए बाधाओं से लड़कर प्रगति का मार्ग बना सकना तो दूर होगा, उल्टे उनकी कल्पना और आशंका से ही भयभीत होकर वह मानसिक सन्तुलन खो देगा और चिन्ता एवं परेशानी से अपना स्वास्थ्य तक गँवा देगा। (पृ.4-5)

 

हमें अपना उद्धार करना चाहिए, अपने को सुधारना और सम्हालना चाहिए। आज की अपेक्षा कल अधिक निर्मल और अधिक उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस मार्ग को अपना सकना हमारे लिए सम्भव हो सका तो न तो केवल अपना वरन् समाज का, सारे विश्व का भी हित साधना करने का श्रेय प्राप्त करेंगे। युग-निर्माण का कार्य व्यक्ति निर्माण से ही आरम्भ होता है। संसार की सेवा का व्रत लेने वाले प्रत्येक परमार्थी को अपने आप की सेवा करने का ब्रत लेकर विश्व मानव की उतने अंश में सेवा करने को तत्पर होना चाहिए जितने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर है। समस्त संसार की सेवा कर सकना कठिन है। अपनी सेवा तो आप कर ही सकते हैं। समस्त संसार को सुखी बनाना और सन्मार्ग पर चलाना यदि अपने लिए कठिन हो तो अपने को सुखी-सन्तुलित एवं सन्मार्गगामी तो बना ही सकते हैं। दूसरों का उद्धार कर सकना उसी के लिए सम्भव होता है जो अपने उद्धार कर सकने में समर्थ होता है। (पृ.7)

आन्तरिक परिष्कार की ओर समुचित ध्यान देना यही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का प्रथम चरण है। अध्यात्म का पहला शिक्षण यही है कि मनुष्य अपना स्वरुप समझे। यह सोचे की मैं कौन हूँ? क्या हूँ और क्या बना हुआ हूँ? आत्म-चिन्तन को साधना का प्रथम सोपान कहा जाता है। यह चिन्तन ईश्वर-जीव-प्रकृति की उच्च भूमिका से आरम्भ नहीं किया जा सकता। कदम तो क्रमशः ही उठाए जाते हैं। नीचे की सीढ़ियों को पार करते हुए ही ऊपर को चढ़ा जा सकता है। सोहम्, शिवोहम् की ध्वनि करने से पूर्व, अपने को सच्चिदानन्द मानने से पूर्व हमें साधारण जीवन पर विचार करने की आवश्यकता पड़ेगी और देखना पड़ेगा कि ईश्वर पुत्र-जीव आज कितने दोष-दुर्गुणों से ग्रसित होकर पामरता का उद्गिन जीवन यापन कर रहा है। माया के बन्धनों ने उसे कितनी बुरी तरह से जकड़ रखा है। और षडरिपु पग-पग पर कैसा त्रास कर रहे हैं। माया का अर्थ है - वह अज्ञान, जिससे ग्रस्त होकर मनुष्य अपने को निर्दोष और सारी परिस्थितियों के लिए दूसरों को उत्तरदायी मानता है। भव-बन्धनों का अर्थ है कुविचारों, कुसंस्कारों और कुकर्मों से छुटाकारा पाना। अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है। (पृ.11)

 अध्यात्म मार्ग पर पहला कदम बढ़ाते हुए साधक को सबसे पहले आत्म-चिन्तन की साधना करनी पड़ती है। ब्रह्मचर्य, तप, त्याग, सत्य, अहिंसा आदि उच्चतम आध्यात्मिक तत्वों को अपनाने से पहले उसे छोटी-छोटी त्रुटियों को संभालना होता है। परीक्षार्थी पहले सरल प्रश्नों को हाथ में लेते हैं ओर कठिन प्रश्नों को अन्त के लिए छोड़ रखते हैं। लड़कियाँ गृहस्थ की शिक्षा गुड़ियों के खेल से आरम्भ करती है। युद्ध में शस्त्र चलाने की निपुणता पहले साधारण खेल के रुप में उसका अभ्यास करके ही की जाती है। सबसे पहले एमए की परीक्षा देने की योजना बनाना गलत है। पहले बाल कक्षा, फिर मिडिल, मैट्रिक, इण्टर, बीए पास करते हुए एमए का प्रमाण पत्र लेने की योजना ही क्रमबद्ध मानी जाती है। सुधार के लिए सबसे पहले सत्य, ब्रह्मचर्य या त्याग को ही हाथ में लेना आवश्यक नहीं है। आरम्भ छोटे-छोटे दोष-दुर्गुणों से करना चाहिए। उन्हें ढूँढना और हटाना चाहिए। इस क्रम में आगे बढ़ते वाले को जो छोटी-छोटी सफलताएं मिलती हैं, उनसे उसका साहस बढ़ता चलता है। उस सुधार के जो प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं उन्हें देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी होता है औऱ उन्हें पूरा करने का मनोबल भी संचित हो चुका होता है।

 जो असंयम, आलस्य, आवेश, अनियमितता और अव्यवस्था की साधारण कमजोरियों को जीत नहीं सका, वह षड़रिपुओं, असुरता के आक्रमणों का मुकाबला क्या करेगा। सन्त, ऋषि और देवता बनने से पहले हमें मनुष्य बनना चाहिए। जिसने मनुष्यता की शिक्षा पूरी नहीं की, वह महात्मा क्या बनेगा। (पृ.11-12)

 हम स्वयं ही अपना उद्धार कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसे ह्दय में पक्की तरह से अंकित करलें। अकेले ही आगे बढ़ने के लिए पथ संधान करने के लिए आपको अपनी आत्मा पर विश्वास करना होगा, उसे ही अपना सर्वस्व मानना होगो। आत्म स्वत्व को भूला देने वाला व्यक्ति अधिक दिन नहीं चल सकता, उसे संसार नष्टकर डालता है। आत्म-शक्ति को समझने, जानने और उसे बढ़ाने के लिए उन सभी बुरे कर्मों से बचना होगा, जो हमारे अन्तर्बाह्य जीवन को कलुषित करते हैं। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है संयम की। संयमी ही स्वाबलम्बी हो सकता है। (पृ.21-22)

 जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वाबलम्बी बनने का प्रयत्न करें। अपने प्रत्येक कार्य को स्वयं पूरा करें। बालकों की तरह दूसरों कें कन्धों पर चढ़कर चलने की वृत्ति का त्याग करें। दूसरों के बलवूते आपको स्वर्ग का राज्य, अपार धन-सम्पतियों का अधिकार, उच्च पद-प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें। अपने आत्म-सम्मान के लिए, अन्तर्ज्योति को प्रज्जवलित रखने के लिए, स्बावलम्बी बनने के लिए। अपने प्रयत्न से आप छोटी-सी झोंपड़ी में रहकर, धरती पर विचरण करके, मिट्टी खोदकर कड़ा जीवन भी बिता लेंगे, तो बहुत बड़ी सफलता होगी, आपके अपने लिए। इससे आपको अकेले के स्वत्व में वह शक्ति क्षमता पैदा होगी, जो किसी भी बरदान प्राप्त शासक, पदाधिकारी, सम्पत्तियों के स्वामी को दुर्लभ होती है। (पृ.22)

(आचार्यश्री की पुस्तक उद्धरेदात्मनात्मानम् से उद्धृत)

चुनींदी पोस्ट

पुस्तक सार - हिमालय की वादियों में

हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय से एक परिचय करवाती पुस्तक यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं, घुमने के शौकीन हैं, शांति, सुकून और एडवेंचर की खोज में हैं ...