शनिवार, 28 नवंबर 2015

यात्रा वृतांत - हमारी कोलकाता यात्रा - भाग1

भावों के सागर में एक डुबकी


संचार की अवधारणा को लेकर आयोजित एक बौद्धिक संगोष्ठी (कॉन्फ्रेंस) में जाने का संयोग बना, सो अपने दो युवा सहयोगी, सहशिक्षकों के साथ इसमें भागीदारी के लिए कोलकाता चल पड़े। अंतिम समय तक सीट रिजर्व नहीं थी, लेकिन अंतिम कुछ घंटों में रिजर्वेशन कन्फर्म होने के साथ लगा, जैसे दैवी कृपा साथ में है। रात ठीक 1030 बजे दून एक्सप्रेस हरिद्वार से कोलकाता की ओर चल पडी। 

यात्रा की भाव भूमिका -
भावों की अतल गहराई लिए हम इस यात्रा पर जा रहे थे। यही वह वंग भूमि है जिसने हर तरह की विभूतियों से इस भारतभूमि को धन्य किया है और विश्व को अजस्र अनुदान देकर मानवता को कृतार्थ किया है। साहित्य हो या कला, फिल्म हो या स्वतंत्रता संग्राम - हर क्षेत्र में इसके विशिष्ट योगदान रहे हैं, और सर्वोपरि धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में तो इसका कोई सानी नहीं। श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, स्वामी प्रण्वानन्द, कुलदानंद व्रह्मचारी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी विशुद्धानंद, महायोगी श्री अरविंद, सुभाषचंद्र बोस, रविंद्रनाथ टैगोर, विपिन चंद्र पाल,....इस वीर प्रसुता दिव्य भूमि, इस तीर्थ क्षेत्र को देखने के गहरे भाव के साथ यात्रा शुरु हो चुकी थी। कॉन्फ्रेंस एक वहाना थी, लेकिन इसमें भी हम एक विद्यार्थी के ज्ञान पिपासु भाव के साथ अपने विषय क्षेत्र के नए आयामों को जानने व एक्सप्लोअर करने के भाव के साथ जा रहे थे।

दून एक्सप्रेस मेें बीते तप-योगमय लम्हे
सीट अपर बर्थ में होने के कारण हिलने-ढुलने की, डिग्री ऑफ फ्रीडम, सीमित रही, ऊपर से दून एक्सप्रेस का आदिम ढांचा इसे ओर सीमित किए रहा। काफी कुछ एक कालकोठरी में वंद होने का अहसास होता रहा। अपर बर्थ अपनी ऊँचाई के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। लेट कर सफर के अलावा कोई विकल्प नहीं था। रात लेटे लेटे ही बीती। अगला दिन भी लगभग ऐसे ही बीता। मोवाइल में नेटवर्क की प्रोबलम और कुछ टाटा डोकोमो की कृपा से बाहरी संसार से संपर्क कट चुका था, अपने साथियों के साथ खाते पीते, चर्चा करते हुए सफर में आगे बढ़ते रहे। शाम के 7 बजे हम बनारस पहुंच चुके थे। वहां ट्रेन काफी देर रूकी। यहां की वाइ-फाई सुविधा का लाभ लेते हुए थोडी देर के लिए अपने खोए संसार से कुछ पल के लिए जुड़ गए।
  
अगले दिन कोलकाता से पहले बर्धमान तक कुछ सवारियां उतर चुकी थी, सो साइड लोअर बर्थ पर सीट मिलने से खिड़की से वंगाल के ग्रामीण आंचल को देखने का मौका मिला। इस रास्ते से दिन के उजाले में यह पहला सफर था, सो बाहर के दिलकश नजारों को निहारते रहे और यथा संभव कैमरे में केप्चर करते रहे। हर गांव, हर कस्वे, हर घर के बाहर तलाब-तलैया और नारियल-ताड़ी के पेड़ हमारे लिए एक रोचक दृश्य़ थे। खेतो में धान कट चुकी थी। कटी धान की ढेरियां कहीं कहीं दिख रही थी। आगे कोलकाता की ओर बढ़ते गए तो धान के हरे भरे खेत लहलहाते मिले। पता चला की यहां बारहों महीने खेत में चाबल की खेती होती है।  

ट्रेन में मच्छी-भात क्लचर से परिचय -
अब तक हमारा परिचय कोलकाता में किसी कंपनी में पिछले तीन दशक से काम कर रहे सज्जन जनार्दन साहब से हो चुका था। इनसे अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए, अपनी जानकारी में बृद्धि करते रहे। पता चला मच्छी-भात यहां लोगों का प्रिय डिश है। मच्छली को शाकाहार माना जाता है, यहां तक कि किन्हीं पूजा में तक इनका प्रयोग होता है। हमारी जिज्ञासा गहरी हो चुकी थी कि मच्छली शाकाहार कैसे हो सकती है। समीपतम जबाब था कि एक मच्छली घास पत्ते भर खाती है, सो उसे शाकाहारी मच्छली माना जाता है, और उसे खाने में कोई परहेज नहीं रहता। खैर हमें इतना समझ आ रहा था कि देश काल परिस्थिति के अनुरुप, स्थानीय मजबूरियों के अनरुप भोजन की आदतें तय होती हैं। जैसे बर्फीले दूरस्थ ठंडे इलाकों में जहां शाक-अन्न दुर्लभ होते हैं, वहां मांस व देसी दारु का सेवन प्रायः लोक प्रचलन रहता है।

हावड़ा स्टेशन पर यागार पल -
 
ट्रेन अढाई घंटे लेट थी, सो सुबह 7 की बजाए हम दिन के 0930 बजे कोलकाता के हाबडा स्टेशन में पहुंचे। यहीं रेल्वे ट्रेक का अंतिम छोर है। सो आश्चर्य नहीं कि सीध स्टेशन के अंदर से ही वाहनों को बाहर निकलते देखा। लेकिन हमारे ठहरने की व्यवस्था स्थानीय परिजन के घर पर हो चुकी थी, सो उनके आते ही साथ चल दिए।

स्टेशन में अंदर चहल-पहल और भीड़ थी। बंगला और अंग्रेजी में लिखे बोर्ड, होर्डिंग और विज्ञापन देखकर लग रहा था कि हम वंग भूमि में पदार्पण कर चुके हैं। स्टेशन से वाहर आते ही इसके भवन के अंग्रेजकालीन भव्य आर्किटेक्ट को निहारते रहे। सच में अंग्रेजों के हम कुछ मामलों में कितने ऋणी हैं। भवन के रंग से मैच करती पीले रंग की टेक्सियां यहां की पुरातन विरासत की जीवंतता का पहला अहासस दे रही थी। हालांकि पता चला कि अब इनके समानान्तर ओला और उबर जैसी टेक्सियों का चलन भी बढ़ रहा है, जो पर्यटकों की बढ़ती संख्या व सुविधा के अनुरुप उचित भी है। 

पुरातन विरासत को समेटे कोलकाता के दर्शन -
स्टेशन से वाहर निकलते ही हावड़ा पुल के दर्शन हुए। विशालकाय पुल, अपने विचित्र एवं अद्वितीय रचना के कारण यात्रियों के मन में एक अलग ही छाप छोड़ जाता है। पुल के नीचे से गुजरती, अपनी मंजिल (सागर) की ओर बढ़ती अलमस्त हुगली नदी (गंगा जी मुख्य धारा) अपने विराट वैभव के साथ श्रद्धानत कर देती है। पुल को पार करते ही सीधा बड़ा बाजार आता है, जिसे, कोलकाता का दिल कहा जाता है, रविवार होने के नाते आज भीड़ न के बरावर थी। अन्यथा यहाँ सड़क पर तिल धरने की जगह नहीं रहती और यहां का जाम तो खासा चर्चा का विषय है। यहां की खुली सड़कों को देखकर नहीं लग रहा था कि हम किसी मैट्रो शहर में हैं और पर से प्राचीन कई मंजिले देसी भवन, जिनका इतिहास सौ से दो सौ वर्ष पुराना तो रहा ही होगा। 

इतिहास से रुबरु होने के बहाने हम शहर की एक लोकप्रिय चाय की दुकान पर रुके। यहां अभी भी चाय बनाने औऱ पिलाने की सौ साल पुरानी परम्परा निभायी जा रही है अंगारों की अंगीठी-चूल्हे पर पानी गर्म हो रहा था, दूसरे वर्तन में चाय मसाला तैयार हो रहा था। तीसरे वर्तन में ग्राहकों के हिसाब से ताजा चाय तैयार की जा रही थी। और फंटाई के साथ इसे कुल्हड़ में परोसा जाता है। पता चला कि दुकान सिर्फ रात को बारह से अढाई बजे तक ही बंद होती है, बाकि के 20-22 घंटे यहां चाय बनती रहती है। परम्पराओं से जुड़े शहर के तार दिल को छूने बाले लगे, जिनके बाकि दिगदर्शन अभी होने शेष थे।

पुरातन विरासत पर आधुनिकता की चादर ओढ़त शहर -
बड़ा बाजार से बाहर निकलते ही रास्ते में सडक पर दौड़ती ट्राम दिखी, जिसकी शायद बदलते जमाने के साथ मैट्रो युग में कोई प्रासांगिकता नहीं है, लेकिन शहर का परम्परा के निर्वाह से प्रेम यथावत जारी दिखा। कोलकाता की गली मुहल्लों के बारे में जो बातें उपन्यासों में पड़े थे, वे हुबहू बैसे ही यहां जीवंत दिख रह। आधुनिकता की दौड़ में अभी भी शहर बहुत कुछ अपनी विरासत को संजोए हुए है। अंग्रेजों के समय में सड़कों में बिछी जल पाइपें व इनसे फूटते पानी के फब्बारे सड़कों का साफ कर रहे थे। अब तक हम बाहर आ चुके थे, आधुनिकता को गले लगाते कोलकाता के दर्शन हो रहे थे। हम वीआईपी सड़क से गुजर रहे थे। फलाई ओबर पता तला शहर की लाइफ लाईन है, जहां जाम से मुक्त रास्ते पर गाड़ी को सरपट दौड़ा सकते हैं, नहीं तो कोलकाता का जाम जिंदगी की गति को ठहराए रहता है। रास्ते में टाबर से होते हुए आगे बढ़े। राह में परिजन के मिशन से जुड़ने की बातें, आचार्यश्री से जुड़े भाव विभोर करते संस्मरण सुनते रहे और यात्रा से जुड़े दैवीय प्रवाह को अनुभव करते रहे। रास्ते में प्रदूषण का बढ़ता स्तर थोड़ा परेशान जरुरत करता रहा। डस्ट व धुंएं की हल्की चादर ओढे शहर पर आधुनिकता का दंश, बढ़ते बाहनों की मार साफ झलक रही थी।
रास्ते में पानी की नहर मिली, पानी काफी गंदा दिख रहा था, लेकिन नोएडा-दिल्ली की सडांध-बदबू से मुक्त दिखा। पता चला यह अंग्रेजों द्वारा निर्मित गंग नहर का जल है, जो पूरे कोलकाता को पार करते हुए आगे बांगला देश तक वहता है। पता चला कि ऐसे जल में मछलियाँ खूव पलती हैं औऱ मछली यहाँ का प्रमुख आहार हैं। रास्ते में ठेले पर हर वेरायटी की मछलियों को देखने का मौका मिला। कुछ इंच से लेकर कई हाथ लम्बी। कुछ तो वर्तन के पानी में तैर रही थी। कुछ मूँछ वाली तो कुछ कांटे व टांगों बाली। यहाँ का मछली प्रेम जिसका जिक्र हम ट्रेन में सुन चुके थे, यहां की मच्छली मार्केट को देखकर प्रत्यक्ष दिख रहा था।

दक्षिणेश्वर की एक शाम -
क्षेत्रीय परिजन के घर में पारिवारिक माहौल, आत्मीय व्यवहार के बीच हम रिलेक्स हुए। चाय के साथ चार बातें कर नहा धोकर तैयार हो गए। भोजन के बाद कुछ विश्राम किए और आज पूरी शाम हमारे पास थी, सो इसका सदुपयोग करते हुए दक्षिणेश्वर का प्रोग्राम बनाए। चलते-चलते शाम हो चुकी थी, सो दक्षिणेश्वर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा छा चुका था। गाड़ी के पार्किंग स्थल से ही ताड़ के झुरमुटों के पार रोशनी में जममगा रह मंदिर का आलौकिक दृश्य मंत्रमुग्ध कर रहा था। आज उस तीर्थ स्थल के दर्शन का दुर्लभ संयोग बन रहा था, जो रामकृष्ण परमहंस की लीला भूमि – तपःस्थली रही है। हाँ मां काली से ठाकुर का सीधा संवाद होता था। यहीं नरेंद्र की माँ से भक्ति-शक्ति और विवेक-वैराग्य का संवाद हुआ था। इसी तीर्थ की पंचवटी में ठाकुर साधना करते थे और युवा शिष्यों को रात के एकांत में साधना करने के लिए प्रेरित करते थे। इसी तपःस्थली में ठाकुर ने विभिन्न धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को जांच-परख कर सभी धर्मों के आध्यात्मिक सत्य को सिद्ध किया था।
जैसे ही हम आगे बढ़ते हैं, भक्तों की अनुशासित भीड़, मंदिर के भव्य शिल्प, द्वादश ज्योतिर्लिंगों के मंदिर और सामने रोशनीं में जगमगाता दक्षिणेश्वर काली मंदिर – स मिलाकर एक जीवंत-जाग्रथ तीर्थ की अनुभूति करा रहे थे। दर्शन के लिए लाइन काफी लंबी थी, लेकिन मंडप से मां के दर्शन के साथ हम कृतार्थ हुए और ठाकुर (रामकृष्ण) के कक्ष में माथा टेककर बापिस चल दिए। समय अभाव के कारण गंगा स्नान व बाकि कार्य़क्रम अगली यात्रा के लिए छोड़कर, अगले पड़ाव की ओऱ बढ़ चले।
गायत्री साधकों के बीच -
यह क्षेत्रीय गायत्री परिजनों की रविवारीय गोष्ठी में भागीदारी थी। यहां हर रविवार को सामूहिक सतसंग व पंचकोशीय साधना का सत्र चलता है। स्थानीय परिजनों द्वारा अपने नैष्ठिक प्रयास से चलाए जा रहे सत्साहित्य प्रसार के सुंदर प्रयास को नजदीक से देखा। आचार्य़श्री द्वारा प्रवर्तित बानप्रस्थ परम्परा यहां जीवंत दिखी। आचार्यश्री का मत था कि गृहस्थ को नौकरी-पेशा व अपने पारिवारिक दायित्व से मुक्त होने के बाद अपना समय आत्म-साधना व लोक सेवा में नियोजित करना चाहिए। अपने ज्ञान व अनुभव से समाज में सत्प्रवृति संबर्धन व दुष्प्रवृति उन्मूलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। यही आत्मसंतुष्टि, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह का राजमार्ग है। अपने परिवार, स्वार्थ और अहंकार तक सीमित मोह-लोभ ग्रस्त रिटायर्ड जीवन, मानवीय गरिमा को व्यक्त नहीं कर सकता।  

केंद्र के परिव्राजक के साधना-स्वाध्याय व सेवा मय जीवन और सत्साहित्य को घर-घर तक पहुंचाने के लिए चल रहे प्रसाय सर्वथा प्रेरक व अनुकरणीय लगे। आधे दाम में अब तक हजारों प्रेरक पुस्तकों को बांट चुके हैं। हर रविवार को यहाँ सामूहिक सतसंग व पंचकोषीय साधना का सत्र चलता है। युवा परिव्राजक इसमें सराहनीय योगदान दे रहे हैं। यदि ऐसे प्रयोग हर प्रज्ञापीठ-शक्तिपीठों व देवालयों में चल पड़ें तो हर देवस्थल जीवंत जाग्रत तीर्थ के रुप में अपने क्षेत्र को संस्कारित करने में समर्थ भूमिका निभा सके। क्षेत्रीय परिजनों के संस्मरणों को देखकर साफ झलकहा था कि गुरुस्ता का आश्वासन, कि तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे, आज भी कसौटी पर खरा उतर रहा है और परिजन पूरी निष्ठा के साथ अपना अकिंचन सा ही सही, कितु भाव भरा नैष्ठिक योगदान दे रहे हैं।....जारी, 
यात्रा का अगला व अंतिम भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - कोलकाता यात्रा, भाग-2, भावों के सागर में डुबकी

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार, भाग-2 (समापन किश्त)



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार

(गांव के नाले व झरने से जुड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था, सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े। 

आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों, घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने का दिन था। घर से पास में सटे नउंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी। 

इसके आगे, कझोरा आहागे पहुंचे, जहाँ से पानी का वंटवारा होता था। घर-गाँव में खेतों की सब्जी के लिए पानी यहीं से आता था। यह गांव का छोटा नाला था, जिसका पानी थोडी दूर नीचे मुख्य नाले में मिलता है, जिसका जिक्र पिछली ब्लॉग पोस्ट में हो चुका है। नाउंड़ी सेरी गांव से होते हुए कच्ची पगड़ंडी के सहारे पानी घर की कियारी तक लगभग 15-20 मिनट में पहुंच जाया करता था। यही आगे बढ़ने का पड़ाव और वापसी का विश्राम स्थल था। यहीं चट्टान के ऊपर बैठ कर विश्राम, खेल हुआ करते थे, यहीं से गाय-भेडों का काफिला आगे जंगल के लिए कूच करता था और शाम को बापिसी में यहीं कुछ पल विश्रांति के बाद घर वापसी हुआ करती थी। आज यह स्थल खेतों एवं सेब बगानों की जद में आ गया है, पुराना नक्शा गायब दिखा। बचपन की यादें बाढ़ें में बंद दिखीं। आज पूरा मैदान, पूरा क्रीडा स्थल गायब था। आगे बढ़ते गए, पानी का टेंक यथावत था, लेकिन इसके इर्द-गिर्द की बंजर जमीं, सीढ़ी दार खेत, मैदान नादारद थे।

वह घास के खेत, क्यारियों, जंगल, वियावन सब गायव थे, पत्थरों की दिवालों में कैद। इनमें सेब व दूसरे फलों के बाग लहलहा रहे थे। लगा आवादी का दवाव, कुछ इंसान के विकास का संघर्ष, तो कुछ लोभ का अंश। सबने मिलजुलकर बचपन की मासूम समृतियों पर जैसे डाका डाल दिया है। विकास का दंश साफ दिखा। वह प्राकृत अवस्था नादारद थी, जिसकी मिट्टी में हम खेलते-कूदते अपने मासूम बचपन को पार करते हुए बढ़े हुए थे।

यह क्या सुवह सुवह ही गांव की कन्याएं पीठ में घास की गठरी लादे नीचे उतर रही थी। निश्चित ही ये प्रातः अंधेरे में ही घर से निकली होंगी, साथ में इनके भाई औऱ माँ। यह, यहाँ की मेहनतकश जिंदगी की बानगी थी, जो ताजा हवा के झौंके की तरह छू गई। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन, जब हम यदा-कदा बान जंगलों में घास-पत्तियों को लाने के लिए घर के बढ़े-बुजुर्गों के साथ इसी तरह सुबह अंधेरे में निकल पड़ते थे और सूर्योदय से पहले ही घर पहुंच जाया करते थे। पहाड़ों पर ऊतार-चढाव भरी मेहनतकश जिंगदी और साफ आवो-हबा शायद एक कारण रही, जो यहाँ के लोग, औसतन शहरी लोगों से अधिक स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु थे। गांव में शायद की कोई व्यक्ति रहा हो जिसे मधुमेह, ह्दयरोग. मोटापा या ऐसी जीवनशैली से जुड़ी बिमारियों का शिकार होता था। लेकिन आज नक्शा बदल रहा है, नयी पीढ़ी में श्रम के प्रति निष्ठा क्रमशः क्षीण हो रही है और जीवन शैली अस्त-व्यस्त व असंयमित। जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं-रोग सर उठा रहे हैं।

अब तक हम कझोरे नाले के समानान्तर चढ़ाई चढ रहे थे। अब इसको पार कर हल्की चढ़ाई के साथ उस पार मुख्य नाले तक पहुँचना था, जो गांव के झरने के पीछे का मध्यम स्रोत है। छाउंदर नाले के रुप में जेहन में बसा यह स्थान हमारी स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। इससे जुड़ी कई रोचक, रोमांचक यादें गहरे अवचेतन में दबी, आज इस ओर बढ़ते हुए ताजा हो रही थीं। मार्ग में गांव का विहंगम दृश्य उपर से दर्शनीय था। सामने पहाड से सुबह का सूर्योदय नीचे उतर रहा था। कुछ मिनटों में विरान मार्ग पार हो गया, रास्ते में कंटीली केक्टस की झाड़ियों में खिले सफेद पुष्प गुच्छ ताजगी का अहसास दिला रहे थे। सडक के दोनों ओर वही नजारा था। राह के विरान, बंंजर चरागाह अब खेत- बागानों में बदल चुके थे। थोड़ी ही देर में हम छाउंदर नाला पहुंच चुके थे।

यहीं से होते हुए गांव का मुख्य नाला नीचे रुपाकार लेता है। इस तक का रास्ता नीचे खरतनाक खाई और उपर भयंकर चट्टानों के बीच से होकर गुजरता है। जीवन-मरण के बीच की पतली रेखा इस मार्ग में कुछ पल के लिए कितनी स्पष्ट हो जाती है। रास्ता पूरा होते ही फिर नाले का कलकल करता स्वच्छ निर्मल जल आता है। इसी पर घराट बने हैं। सरकार के जल विभाग द्वारा इस पर विशेष पुल तैयार किया गया है और बर्षा बाढ़ से रक्षा के लिए चैक डैम। यहीं से कई पाइपें नीचे चट्टानों से उतरती दिखीं, जो पता चला कि सुदूर खेतों व बागों के लिए सिंचाई के लिए कई कि.मी. मार्ग तय करती हुई जाती हैं।

नाले के उस पार खड़ी चढ़ाई को चढ़ते हुए मंजिल की ओर आगे बढते गए। इस ऊँचाई पर गांव पीछे छूट चुके थे। ऐसे विरान में भी अकेला घऱ, बाहर आंगन में काम करते स्त्री-पुरुष, खेलते बच्चे। इस ऊँचाई में एकांतिक जीवन का रुमानी भाव जाग रहा था। कितना शांति रहती होगी यहाँ इस एकांत शांत निर्जन बन में। सृजन व एकांतिक ध्यान-साधना के लिए कितना आदर्श स्थल है यह। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि यह सब संसाधनों के रहते ही संभव है। यदि खाने-पीने व दवाई-दारु का अभाव रहा तो यहां जीवन कितना विकट हो सकता है। आपातकाल में यहाँ कैसे जुरुरी साधन-सुविधाएं जुटती होंगी। इसी विचार के साथ आगे की कष्टभरी चढ़ाई चढ़ते गए।

पसीने से बदन भीग रहा था, सांसें फूल रहीं थी। हल्का होने के लिए बीच-बीच में अल्प विराम भी लेते। अभी पहाड़ी पगडंडियों को मिलाते तिराहे पर बने चट्टानी आसन पर विश्राम कर रहे थे। पहाड़ में इधर ऊधर बिखरे घरों में दैनिक जीवनचर्या शुरु हो चुकी थी। रास्ते में गाय बछड़ों के साथ खेतों की ओर कूच करते महिलाएं, बच्चे, पुरुष मिलते रहे। अब हम पहाड़ के काफी पीछे आ चुके थे। नीचे की घाटी पीछे छूट चुकी थी। मुख्य नाला वाईं ओर गहरी खाई में गायव था। सामने फाड़मेंह गांव के माध्यमिक स्कूल का भवन दिख रहा था। कभी इस गांव के बच्चे रोज हमारे गांव के स्कूल में 3-4 किमी सीधी खडी उतराई, चढाई को पार कर आते थे। आज गांव के अपने स्कूल में बच्चों की इस दुविधा का समाधान दिखा। 

यहां से थोड़ी की चढाई के बाद हमे मुख्य मार्ग में पहुंच चुके थे। यह इन दो दशकों में हुआ बड़ा विकास दिखा। अब इस इलाके के अंतिम गांव तक सड़क पहुंच चुकी है। हम इसी सड़क तक पहुंच चुके थे। पहले कभी इन गांव से फलों को क्रेन के माध्यम से नीचे पहुंचाया जाता था, आज इन सड़कों में जीप-ट्रोली के माध्यम से सेब-सब्जियां मंडी तक ले जायी जा रही हैं। गांव के युवा अपनी वाइकों में स्वार होकर यहां से सीधा शहर-कालेज जा रहे हैं। घर निर्माण के संसाधन सहज होने के कारण गांव का नक्शा बदल चुका है। विकास की व्यार इन सुदूर गांव तक स्पष्ट दिखी। पीने का साफ जल, बिजली, सड़क के साथ टीवी-नेट सुबिधाएं सब यहां सहज सुलभ हैं।

इस सड़क के साथ कुछ दूर चलने के बाद हम फिर पगडंडी के साथ होते हुए मंजिल की ओर बढ़ चले। अब फिर सीधी खड़ी चढाई थी। रास्ता बहुत ही संकरा और फिसलन भरा, हमारे लिए कठिन परीक्षा थी, लेकिन यहां के क्षेत्रीय लोग तो यहाँ पीठ में बोझा लादे भी सहज ढंग से चढ़-उतर रहे थे। रास्ते में जल का शीतल-निर्मल स्रोत मिला, जो यह मार्ग की प्यास व थकान को दूर करने बाली औषधी सरीखा था। यह किसी भी तरह बोतलों में बंद मिनरल वाटर से कम नहीं था, बल्कि अपने प्राकृत औषधीय गुणों व स्वाद के कारण उससे बेहतर ही लगा। क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि यह भूख को बढाता है और पाचन प्रक्रिया को तेज करता है। हमारा अनुभव भी ऐसा ही रहा।

थोडी ही देर में हम मंजिल पहुंच चुके थे। दूर नीचे घाटी का विहिंगम दृष्ट दर्शनीय था। पहाड के निर्जन गाँव नीचे छूट चुके थे औऱ यहां से इनका विहंगम दृश्य दर्शनीय था। पीछे गांव के नाले का मूल स्रोत रेउंश झरना अपनी मनोरम छटा के साथ अपने दिव्य दर्शन दे रहा था। गावं के पवित्र ईष्ट देव, स्थान देवों की पुण्य भूमि सामने थी। बचपन में जिन पहाड़ों को निहारा करते थे, देवदार से लदे वे पर्वत सामने थे। इस देवभूमि में सुबह का सूर्योदय होने वाला था। आसन जमाकर, हम इन दुर्लभ क्षणों को ध्यान की विषय बस्तु बनाकर अपने जीवन के शाश्वत स्रोत से जुड़ने की कवायद करते रहे। सूर्य की किरणें पूरी घाटी में ऊजाला फैला रही थी, हमारे शरीर-प्राण की जड़ता को भेदकर कहीं अंतरमन में गहरे उतर रही थीं।
आज हम गांव के नाले व झरने के स्रोत के पास ध्यान मग्न थे। इसकी गोद में विताए बचपन के मासूम दिनों को याद कर रहे थे, इसके बाद बीते दशकों की भी भाव यात्रा कर रहे थे। कैसे कालचक्र जीवन को बचपन, जवानी, प्रौढावस्था के पड़ाव से ले जाते हुए बुढ़ापे कओर धकेल देता है। परिवर्तन के शाश्वत चक्र में सब कैसे सिमट जाता है, बीत जाता है, खो जाता है। लेकिन साथ रहता है तो शायद वर्तमान। उसी वर्तमान के साथ हम भूत को समरण कर, भविष्य का ताना-बाना बुन रहे थे। अब आगे क्या होगा यह तो साहब जाने, हम तो नेक इरादों के साथ इस जीवन की यात्रा को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचाने के भाव के साथ यहाँ खुद को खोजने-खोदने आए थे।

बापसी में इसी सीधी उतराई के साथ नीचे उतरे। छाउंदर नाले के पास केकटस की कंटीली झाड़ियों के पके मीठे फलों का लुत्फ लेते हुए, फिसलन भरी घास के बीच नीचे उतर कर गांव के हनुमान मंदिर पहुंचे। मंदिर में माथा टेकते हुए बापिस झरने व नाले की गोद में पहुँचे। आज की यात्रा पूरी हुई, जिसकी स्मृतियां हमेशा याद करने पर भावनाओं को उद्वेलित करती रहेंगी। अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गई, जिनका समाधान किया जाना है। एक मकसद भी दे गई, जिसको समय रहते पूरा करना है।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार- भाग 1



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सारोकार

जिंदगी का प्रवाह कालचक्र के साथ बहता रहता है, घटनाएं घटती रहती हैं, जिनका तात्कालिक कोई खास महत्व प्रतीत नहीं होता। लेकिन समय के साथ इनका महत्व बढ़ता जाता है। काल के गर्भ में समायी इन घटनाओं का अर्थ व महत्व बाद में पता चलता है, जब सहज ही घटी इन घटनाओं से जुड़ी स्मृतियां गहरे अवचेतन से उभर कर प्रकट होती हैं और वर्तमान को नए मायने, नए रंग दे जाती हैं। अक्टूबर 2015 के पहले सप्ताह में हुआ अपनी बचपन की क्रीडा-भूमि का सफर कई मायनों में इसी सत्य का साक्षी रहा।

याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव में पीने के लिए नल की कोई व्यवस्था नहीं थे। गांव का नाला ही जल का एक मात्र स्रोत था। घर से आधा किमी दूर नाले तक जाकर स्कूल जाने से पहले सुबह दो बाल्टी या केन दोनों हाथों में लिए पानी भरना नित्य क्रम था। इसी नाले में दिन को घर में पल रहे गाय-बैलों को पानी पीने के लिए ले जाया करते थे। नाला ही हमारा धोबीघाट था। नाले की धारा पर मिट्टी-पत्थरों की दीवाल से बनी झील ही हमारा स्विमिंग पुल। गांव का वार्षिक मेला इसी के किनारे मैदान में मनाया जाता था। इसी को पार करते हुए हम कितनी बार दूसरे गांव में बसी नानी-मौसी के घर आया जाया करते थे। बचपन का स्मृति कोष जैसे इसके इर्द-गिर्द छिपा था, जो आज एक साथ जागकर हमें बालपने के बीते दिनों में ले गया था।

इसके पानी की शुद्धता को लेकर कोई गिला शिक्वा नहीं था। कितनी पुश्तें इसका जल पीकर पली बढ़ी होंगी। सब स्वस्थ नीरोग, हष्ट-पुष्ट थे। (यह अलग बात है कि समय के साथ सरकार द्वारा गांव में जगह-जगह नल की व्यवस्था की गई। आज तो गांव क्या, घर-घर में नल हैं, जिनमें नाले का नहीं, पहाड़ों से जलस्रोतों का शुद्ध जल स्पलाई किया जाता है)

इसी नाले का उद्गम कहां से व कैसे होता है, यह प्रश्न बालमन के लिए पहेली से कम नहीं था। क्योंकि नाला गांव में एक दुर्गम खाई भरी चढ़ाई से अचानक एक झरने के रुप में प्रकट होता था। झरना कहाँ से शुरु होता है व कैसे रास्ते में रुपाकार लेता है, यह शिशुमन के लिए एक राज था। बचपन इसी झरने की गोद में खेलते कूदते बीता। कभी इसके मुहाने पर बसे घराट में आटा पीसने के वहाने, तो कभी इसकी गोद में लगे अखरोट व खुमानी के पेड़ों से कचे-पक्के फल खाने के बहाने। और हाँ, कभी जायरु (भूमिगत जल स्रोत) के शुद्धजल के बहाने। झरने से 100-150 मीटर के दायरे में चट्टानों की गोद से जल के ये जायरू हमारे लिए प्रकृति प्रदत उपहार से कम नहीं थे। गर्मी में ठंडा जल तो सर्दी में कोसा गर्म जल। उस समय यहाँ ऐसे तीन चार जायरु थे। लेकिन अब एक ही शेष बचा है। सुना है कि बरसात में बाकी भी जीवंत हो जाते हैं।

झरना जहाँ गिरता था वहाँ झील बन जाती थी, जिसमें हम तैरते थे। लगभग 300 फीट ऊँचे झरने से गिरती पानी की फुआरों के बीच सतरंगी इंद्रधनुष अपने आप में एक दिलकश नजारा रहता था। झरने की दुधिया धाराएं व फुआरें यहां के सौंदर्य़ को चार चांद लगाते थे। गांव वासियों के लिए झरना एक पवित्र स्थल था, जिसके उद्गम पर झरने के शिखर पर वे योगनियों का निवासस्थान मानते थे व इनको पूजते थे, जो चलन आज भी पूरानी पीढ़ी के साथ जारी है।

आज हम इसी झरने तक आए थे। घर-गाँव से निकलने के दो दशक बाद इसके दर्शन-अवलोक का संयोग बना था। अखरोट के पेड़  में सुखते हरे कव्च से झांक रहे पक्के अखरोट जैसे हमें अपना परिचय देते हुए बचपन की यादें ताजा करा रहे थे। झरने में पानी की मात्रा काफी कम थी। लेकिन ऊपर से गिरती जलराशी अपनी सुमधुर आवाज के साथ एक जीवंत झरने का पूरा अहसास दिला रही थी। पता चला की पर्यटकों के बीच आज यह झरना खासा लोकप्रिय है। हो भी क्यों न, आखिर यह गहन एकांत-शांत गुफा नुमा घाटी में बसा प्रकृति का अद्भुत नाजारा आज भी अपने आगोश में दुनियां के कोलाहल से दूर दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देता है। ऊपर क्या है, पीछे क्या है, सब दुर्गम रहस्य की ओढ़ में छिपा हुआ, बालमन के लिए बैसे ही कुछ था, जैसे बाहुबली में झरने के पीछे के लोक की रहस्यमयी उपस्थिति।
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झरने का घटता हुआ जल स्तर हमें चिंता का विषय लगा। इसका सीधा सम्बन्ध एक तरफे विकास की मार झेलते प्रकृति-पर्यावरण से है। पिछले दो दशकों में क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ है, जिसका इस नाले से सीधा सम्बन्ध रहा। याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव के युवा अधिकाँश वेरोजगार घूमते थे। शाम को स्कूल के मैदान में सबका जमाबड़ा रहता था। बालीवाल खेलते थे, मस्ती करते थे। इसके बाद गावं की दुकानों व सड़कों पर मटरगश्ती से लेकिर शराब-नशे का सेवन होता था। कई बार मारपीट की घटनाएं भी होती थीं। गांव के युवा खेल में अब्बल रहते थे, लेकिन युवा ऊर्जा का सृजनात्मन नियोजन न होना, चिंता का विषय था। इनकी खेती-बाड़ी व श्रम में रुचि न के बरावर थी।

लेकिन इन दो दशकों में नजारा बदल चुका है। बीच में यहाँ सब्जी उत्पादन का दौर चला। तीन माह में इस कैश क्रांपिक से झोली भरने लगी। गोभी, मटर, टमाटर, गाजर-शलजम जैसी सब्जियों उगाई जाने लगी। इसके अलावा ब्रोक्ली, स्पाइनेच, सेलेड जैसी विदेशी सब्जियां भी आजमायी गईं।

सब्जियों की फसल बहुत मेहनत की मांग करती हैं। दिन रात इनकी देखभाल करनी पड़ती है। निंडाई-गुडाई से लेकर समय पर सप्रे व पानी की व्यवस्था। जल का एक मात्र स्रोत यह नाला था। सो झरने के ऊपर से नाले के मूल स्रोत से सीधे पाइपें बिछनी शुरु हो गईं। इस समय दो दर्जन से अधिक पाइपों के जाल इसमें बिछ चुके हैं और इसका जल गांव में खेतों की सिचांई के काम आ रहा है। स्वाभिवक रुप से झरने का जल प्रभावित हुआ है।

दूसरा सेब की फसल का चलन इस दौरान क्षेत्र में बढ़ा है। पहले जिन खेतों में गैंहूं, चावल उगाए जाते थे, आज वहाँ सेब के पेड़ देखे जा सकते हैं। कुल्लू मानाली घाटी की अप्पर वेली को तो हम बचपन से ही सेब बेल्ट में रुपांतरित होते देख चुके थे। लेकिन हमारा क्षेत्र इससे अछूता था। बचपन में हमारे गाँव में सेब के गिनती के पड़े थे। जंगली खुमानी भर की बहुतायत थी, जो खेत की मेंड़ पर उगी होती थी। धीरे-धीरे नाशपाती व प्लम के पेड़ जुड़ते गए। लेकिन आज पूरा क्षेत्र सेब के बागानों से भर चुका है, जिसके साथ यहाँ आर्थिक समृद्धि की नयी तिजारत लिखी जा रही है। इसमें जल का नियोजन अहम है, जिसमें नाले का जल केंद्रीय भूमिका में है। 

पाईपों से फल व सब्जी के खेतों में पानी के नियोजन से बचपन का झरना दम तोड़ता दिख रहा है। जो नाला व्यास नदी तक निर्बाध बहता था, वह भी बीच रास्ते में ही दम तोड़ता नजर आ रहा है। इस पर बढ़ती जनसंख्या, मौसम में परिवर्तन व विकास की एकतरफा दौड़ की मार स्पष्ट है। ऐसे में जल के बैकल्पिक स्रोत पर विचार अहम हो जाता है। उपलब्ध जल का सही व संतुलित नियोजन महत्वपूर्ण है। सूखते जल स्रोतों को कैसे पुनः रिचार्ज किया जाए, काम बाकि है। क्षेत्र के समझदार एवं जिम्मेदार लोगों को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने होंगे, अन्यथा विकास की एकतरफा दौड़ आगे अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ती दिख रही है। ..(जारी..शेष अगली ब्लॉग पोस्ट में..)

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