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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

लक्ष्य निर्धारण – रखें अपनी मौलिकता का ध्यान

अपनी अंतःप्रेरणा को न करें नजरंदाज

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है। बिना लक्ष्य के व्यक्ति उस पेंडुलम की भांति होता है, जो इधर-ऊधर हिलता ढुलता तो रहता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर व्यक्ति की ऊर्जा यूँ ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है और हाथ कुछ लगता नहीं। फिर कहावत भी है कि खाली मन शैतान का घर। लक्ष्य विहीन जीवन खुराफातों में ही बीत जाता है, निष्कर्ष ऐसे में कुछ निकलता नहीं। पश्चाताप के साथ इसका अंत होता है और बिना किसी सार्थक परिणाम के एक त्रास्द दुर्घटना के रुप में वहुमूल्य जीवन का अवसान हो जाता है। अतः जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है।

लेकिन जीवन लक्ष्य निर्धारण में प्रायः चूक हो जाती है। अधिकाँशतः बाह्य परिस्थितियाँ से प्रभावित होकर हमारे जीवन का लक्ष्य निर्धारण होता है। समाज का चलन या फिर घर में बड़े-बुजुर्गों का दबाव या बाजार का चलन या फिर किसी आदर्श का अंधानुकरण जीवन का लक्ष्य तय करते देखे जाते हैं। इसमें भी कुछ गलत नहीं है यदि इस तरह निर्धारित लक्ष्य हमारी प्रतिभा, आंतरिक चाह, क्षमता और स्वभाव से मेल खाती हो। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो फिर जीवन एक नीरस एवं बोझिल सफर बन जाता है। हम जीवन में आगे तो बढ़ते हैं, सफल भी होते हैं, उपलब्धियाँ भी हाथ लगती हैं, लेकिन जीवन की शांति, सुकून और आनन्द से वंचित ही रह जाते हैं। हमारी अंतर्निहित क्षमता प्रकट नहीं हो पाती, जीवन का उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो पाता। पेशे के साथ व्यक्तित्व में जो निखार आना चाहिए वह नहीं आ पाता।

फिर, जीवन के लक्ष्य निर्धारण में अंतःप्रेरणा का कोई विकल्प नहीं। अंतःप्रेरणा सीधे ईश्वरीय वाणी होती है, जिससे हमारे जीवन की चरम संभावनाओं का द्वार खुलता है। हर इंसान ईश्वर की एक अनुपम एवं बेजोड़ कृति है, जिसे एक विशिष्ट लक्ष्य के साथ धरती पर भेजा गया है, जिसका दूसरा कोई विकल्प नहीं। अतः जीवन लक्ष्य के संदर्भ में किसी की नकल नहीं हो सकती। ऐसा करना अपनी संभावनाओं के साथ धोखा है, जिसका खामियाजा इंसान को जीवन भर भुगतना पड़ता है। यह एक विडम्बना ही है कि मन को ढर्रे पर चलना भाता है। अपनी मौलिकता के अनुरुप लीक से हटकर चलने का साहस यह सामान्यतः नहीं जुटा पाता और भेड़ चाल में उधारी सपनों का बोझ ढोना उसकी नियति बन जाती है। ऐसे में अपनी अंतःप्रेरणा किन्हीं अंधेरे कौनों में पड़ी सिसकती रहती है और मौलिक क्षमताओं का बीज बिना प्रकट हुए ही दम तोड़ देता है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि व्यक्ति अपने सच का सामना करने का साहस कर पाता। अंतर्मन से जुड़कर अपने जीवन की मूल प्रेरणा को समझ पाता। उसके अनुरुप अपनी शक्ति-सीमाओं और अपनी खूबी-न्यूनताओं को पहचानते हुए जीवन की कार्यपद्धति का निर्धारण कर पाता तथा कुलबुला रहे प्रतिभा के बीज को प्रकट होने का अवसर देता। ऐसे में जीवन की समग्र सफलता का सुयोग घटित होता और सार्थकता के बोध के साथ नजरें संभावनाओं के शिखर को निहारते हुए, कदम शनै-शनै मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे होते।

ऐसा न कर पाने का एक प्रमुख कारण रहता है, दूसरों से तुलना व कटाक्ष में समय व ऊर्जा की बर्वादी। अपनी मौलिकता की पहचान न होने की वजह से हम अनावश्यक रुप में दूसरों से तुलना में उलझ जाते हैं। भूल जाते हैं कि सब की अपनी-अपनी मंजिल है और अपनी अपनी राह। इस भूल में छोटी-छोटी बातों में ही हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन बैठते हैं और अपने लक्ष्य पर केंद्रित होने की बजाए कहीं और भटक जाते हैं। ऐसे में जीवन का ध्येय दृष्टि से औझल हो जाता है और मन की अस्थिरता व चंचलता गहरे उतरने से रोकती है। एक पल किसी से आगे निकलने की खुशी में मदहोश हो जाते हैं, तो अगले ही पल दूसरे से पिछड़ने पर मायूस हो जाते हैं। ऐसे में बाहर की आपा-धापी और अंधी दौड़ में अपने मूल लक्ष्य से चूक जाते हैं।

ऐसे में जरुरत होती है, कुछ पल नित्य अपने लिए निकालने की, शांत स्थिर होकर गहन आत्म समीक्षा करने की, जिससे कि अपनी मूल प्रेरणा से जुड़कर इसके इर्द-गिर्द केंद्रित हो सकें। प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय इसमें बहुत सहायक होता है, जिसके प्रकाश में आत्म समीक्षा व्यक्तित्व की गहरी परतों से गाढ़ा परिचय कराने में मदद करती है। अपने स्वभाव, आदतों एवं व्यक्तित्व का पैटर्न समझ आने लगता है। इसी के साथ अपने मौलिक स्व से परिचय होता है और जीवन का स्वधर्म कहें या वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट होता चलता है।

खुद को जानने की इस प्रक्रिया में ज्ञानीजनों का संग-साथ बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। उनके साथ विताए कुछ पल जीवन को गहन अंतर्दृष्टि देने में सक्षम होते हैं। जीवन की उच्चतर प्रेरणा से संपर्क सधता है, जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है। भीड़ की अंधी दौड़ से हटकर चलने का साहस जुट पाता है और जीवन को नयी समझ व दिशा मिल पाती है। जीवन सृजन की नई डगर पर आगे बढ़ चलता है और अपनी मूल प्रेरणा से जुड़ना जीवन की सबसे रोमाँचक घटनाओं में एक साबित होती है। इसी के साथ जीवन के मायने बदल जाते हैं और यह अंतर्निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति का एक रोचक अभियान बन जाता है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

चरित्र निर्माण, कालजयी व्यक्तित्व का आधार


"Character has to be established trough a thousand stumbles. Swami Vivekananda" 

चरित्र, अर्थात्, काल के भाल पर व्यक्तित्व की अमिट छाप
 
   चरित्र, सबसे मूल्यवान सम्पदा -
   कहावत प्रसिद्ध है कि, यदि धन गया तो समझो कुछ भी नहीं गया, यदि स्वास्थ्य गया तो समझो कुछ गया और यदि चरित्र गया, तो समझो सब कुछ गया। निसंदेह चरित्र, व्यक्तित्व क सबसे मूल्यवान पूँजी है, जो जीवन की दशा दिशा- और नियति को तय करत है। व्यक्ति की सफलता कितनी टिकाऊ है, बाह्य पहचान के साथ आंतरिक शांति-सुकून भी मिल पा रहे हैं या नहीं, सब चरित्र निर्माण के आधार पर निर्धारित होते हैं। व्यवहार तो व्यक्तित्व का मुखौटा भर है, जो एक पहचान देता है, जिससे एक छवि बनती है, लेकिन यदि व्यक्ति का चरित्र दुर्बल है तो यह छवि, पहचान दूर तक नहीं बनीं रह सकती। प्रलोभन और विषमताओं के प्रहार के सामने व्यवहार की कलई उतरते देर नही लगती, असली चेहरा सामने आ जाता है। चरित्र निर्माण इस संकट से व्यक्ति को उबारता है, उसकी पहचान, छवि को  बनाए रखने में मदद करता है, सुख के साथ आनन्द का मार्ग प्रशस्त करता है।
  
   चिंतन, चरित्र और व्यवहार -
   हम जैसा चिंतन करते हैं बैसा ही हमारा चरित्र बनता जाता है और वैसा ही व्यवहार निर्धारित होता है। कहावत प्रसिद्ध है, चिंतन, चरित्र और व्यवहार। वास्तव में चिंतन और व्यवहार मिलकर जो छाप, इंप्रिंट चित्त पर डालते हैं, उनके अनुरुप हमारा चरित्र रुपाकार लेता है। बार बार जो हम सोचते हैं, वही करते हैं और वैसा ही चित्त पर संस्कारों के रुप में च्छाई-बुराई का जखीरा इकट्ठा होता जाता है। इन्हीं पॉजिटीव और नेगेटिव संस्कारों का सम्मिलित परिणाम ही हमारे चरित्र को परिभाषित करता है और वैसा ही हमारा स्वभाव बनता जाता है। यह संस्कार, स्वभाव ही हमारे चरित्र के रुप में हमारे व्यक्तित्व की विशिष्ट छवि निर्धारित करत हैं, पहचान बनात हैं और व्यावहारिक जीवन की सफलता, असफलता को निर्धारित करत हैं।

   पशुता से इंसानियत और देवत्व की महायात्रा का हमसफर - 
   इन्हीं संस्कारों के अनुरुप इंसान विरोधाभासी तत्वों की एक विचित्र सृष्टि है। मनुष्य के अंदर एक पशु भी छिपा है, एक इंसान भी और एक देवता भी। यदि पशु की नकेल न कसी जाए, मन-इंद्रियों को संयमित अनुशासित नहीं किया गया तो उसे पिशाच, राक्षस बनते देर नहीं लगती। आज जो पाश्विक, अमानवीय, पैशाचिक घटनाएं समाज में भ्रष्टाचार, दुराचार, अपराध, हिंसा, आतंक के रुप में ताण्डब नर्तन कर रही हैं, इनमें ऐसे ही कलुषित चित्त, विकृत मानसिकता बाले तत्व सक्रिय हैं। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया ही मनुष्य को पशुता से उपर उठाकर इंसान बनाती है, मानव से महामानव बनने की ओर प्रवृत करती है, देवत्व जिसकी स्वाभाविक परिणति होती है। सार रुप में कहें तो इंसान के पतन और उत्थान दोनों की कोई सीमा नहीं है, सारा खेल चरित्र के उत्थान पतन के ईर्द-गिर्द घूमता है। 
  
   चरित्र - स्थायी व टिकाऊ सफलता का आधार -
   प्रतिभा या योग्यता व्यक्ति को समाज में पहचान व स्थान दे सकती है, एक रेप्यूटेशन दे सकती है, लेकिन उसको टिकाऊ व स्थायी चरित्र ही बनाता है। हर कसौटी पर खरा उतरने की सामर्थ्य चरित्र देता है। चरित्र के अनुरुप ही व्यक्ति के कुछ असूल, मानदण्ड, जीवन मूल्य तय होते हैं, जिनका पालन व्यक्ति हर परिस्थिति में करता है। ये आचरण-व्यवहार की स्वनिर्धारित लक्ष्मणरेखाएं हैं जिसका वह हर हालत में पालन करता है, जिनका उल्लंघन वह होशोहवाश में नहीं कर सकता। यदि परिस्थितिवश भूल-चूक हो भी गई तो इनका प्रायश्चित परिमार्जन किए बिन चैन से नहीं बैठ सकता। यह संवेदनशीलता, यह इमानदारी ही चरित्र निर्माण का आधार है, जो व्यक्ति को विशिष्ट पहचान देती है, उसकी यूएसपी बनती है, अघोषित ब्राँड तय करती है। यह व्यक्तित्व को वह विश्वसनीयता, प्रामाणिकता देती है, जो काल के कपाट पर अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ती है।
  
   आदर्श का सही चयन महत्वपूर्ण
   जीवन में उच्च आदर्श के अनुरुप हम चित्त के संस्कारों का प्रक्षालन, परिमार्जन कर व्यक्तित्व को मनमाफिक रुपाकार दे सकते हैं। जीवन को दशा व दिशा का मनचाहा निर्धारण कर सकते हैं। अंतर की पाश्विक वृतियों को परिष्कृत कर जीवन की उच्चतर संभावनाओं को साकार कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में आदर्श का निर्धारण चरित्र निर्माण का एक निर्णायक तत्व है। आदर्श का सही निर्धारण डाकू बाल्मीकि को संत बना सकता है, वेश्या आम्रपाली को साध्वी बना सकता है, काम लोलुप तुलसी और सूरदास को एक संत बना सकता है, नास्तिक भगतसिंह को युवाओं का आदर्श बना सकता है, संशयग्रस्त नरेंद्र को कालजयी युगपुरुष बना सकता है, पश्चिमी शिक्षा में शिक्षित अरविंद को क्राँतिकारी महायोगी बना सकता है। और यही आदर्श एक आम इंसान को क्रमशः उत्थान की सीढियों पर आगे बढ़ाते हुए जीवन के चरमोत्कर्ष तक ले जा सकता है।

   चरित्र का व्यवहारिक मापदण्ड
   वस्तुतः चरित्र हमारे जीवन की सफलता, बुलंदी, चरमोत्कर्ष की सीमा का निर्धारक तत्व भी है। हम जीवन में किन ऊँचाइयों को छू पाएंगे, इसका निर्धारण चरित्र ही करता है। क्योंकि चरित्र हमारे व्यक्तित्व की जडे हैं, यह कितनी गहरी हैं या उथली, कितनी मजबूत हैं या नाजुक – ये जीवन की संभावनाओं को तय करती हैं। वास्तव में चरित्र हमारे व्यक्तित्व रुपी जंजीर की सबसे कमजोर कडी से तय होता है। हम किस बिदुं पर आकर वहक, बिखर, फिसल व टूट जाते हैं, यही हमारे चरित्र का व्यवहारिक मापदण्ड हैं, जिसके आइने में हम रोज अपनी समीक्षा कर सकते हैं। और चरित्र निर्माण की प्रक्रिया को जीवन का एक अभिन्न अंग बनाते हुए, रोज खुद को तराशते हुए, अपनी संकल्प सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं।
 
   चरित्र निर्माण से सम्बन्धित अन्य लेख नीचे देख सकते हैं -
 
 

बुधवार, 29 जुलाई 2015

बस एक ही खासियत देखता हूँ इस अंधियारे में

हिम्मत नहीं हारा हूँ अभी
लिए अंतिम विजय की आश, खुद पर अटल विश्वास

एक ईमानदार कोशिश करता हूँ रोज खुद को गढ़ने की, 
लेकिन अभी, आदर्श से कितना दूर, अज्ञात से कितना मजबूर।

लोग कहते हैं कि सफल इंसान हूं अपनी धुन का, 
दे चुका हूँ कई सफल अभियानों को अंजाम,
 सफलता की बुलंदियों पर खुशियों के शिखर देखे हैं कितने,
लगा जब मुट्ठी में सारा जहाँ।

फिर सफर ढलुआ उतराई का, सफलता से दूर, गुमनामी की खाई,
सफलता का शिखर छूटता रहा पीछे, मिली संग जब असफलता की परछाई,
मुट्ठी से रेत सा फिसलता समय, हाथ में जैसे झोली खाली,
ठगा सा निशब्द देखता हूँ सफलता-असफलता की यह आँख-मिचौली।


ऐसे में, सरक रही, जीवन की गाड़ी पूर्ण विराम की ओर,
दिखता है, लौकिक जीवन का अवसान जिसका अंतिम छोर,
सुना यह एक पड़ाव शाश्वत जीवन का, बाद इसके महायात्रा का नया दौर,
क्षण-भंगुर जीवन का यह बोध, देता कुछ पल हाथ में शाश्वत जीवन की ढोर।

जीवन की इस ढलती शाम में, माना मंजिल, अभी आदर्श से दूर, बहुत दूर,
एक असफल इंसान महसूस करता हूँ खुद को, आदर्श के आयने में,
आदर्श से अभी कितना दूर, अज्ञात से कितना मजबूर।
बस एक ही खासियत पाता हूँ इस अंधियारे में, टिमटिमा रहा जो बनअंतर में आशादीप,

हिम्मत नहीं हारा हूँ अभी, लिए अंतिम विजय की आश, खुद पर अटल विश्वास।




मंगलवार, 30 सितंबर 2014

नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर ले जाता सृजन पथ


जुड़ें पॉजिटिव ऊर्जा के स्रोत से
 

हर इंसान सुख शांति की तलाश में है। उत्साह उमंग आशा से भरे पलों में वह आंशिक रुप में इस तलाश को पूरी होता पाता है। ये पॉजिटिव ऊर्जा से भरे पल होते हैं। लेकिन इसके क्षीण होते ही जीवन में निराशा-हताशा के काले बादल मंडराने लगते हैं,  और जीवन अवसाद के सघन कुहासे में कहीं सिसकने लगता है। इस अंधेरे कोने से उबरने और जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से जोड़ने के लिए आवश्यक है कि सकारात्मक ऊर्जा के स्रोत की खोज की जाए, इसकी ओर रुख किया जाए, जिससे कि एक कलाकार की भांति उतार-चढ़ावों के बीच एक संतुलित जीवन जिया जा सके। प्रस्तुत है पाजिटिव ऊर्जा स्रोत से जोड़ते कुछ ऐसे ही सुत्र-   

1.     अपनी प्रतिभा एवं रुचि से जुड़ा जीवन लक्ष्य यदि जीवन लक्ष्य स्पष्ट है तो आधी जीत हासिल समझो। फिर हर पल व्यक्ति इसको पाने के निमित सृजनात्मक प्रयास में व्यस्त रहता है और नकारात्मक विचारों को घुसने का मौका ही नहीं मिल पाता। और अगर जीवन लक्ष्य स्पष्ट नहीं तो, जीवन एक दिशाहीन नाव की भांति परिस्थितियों के  थपेड़ों के बीच हिचकोले खाने के लिए विवश होता है।
अतः अपनी रुचि एवं प्रतिभा से जुड़ा हुआ जीवन लक्ष्य सकारात्मक ऊर्जा का प्रथम स्रोत है।


2.     कठोर श्रम, प्रचण्ड पुरुषार्थ, अथक प्रयास - अपने लक्ष्य के अऩुरुप कठोर श्रम, सबल पुरुषार्थ, अथक प्रयास अभीष्ट उपलब्धियों को सुनिश्चित करता है। इससे नकारात्मकता को पुष्ट करने वाली जड़ता टूटती है और जीवन गतिशील होता है, जिससे जीवन में आशा-उत्साह  के सुखद संयोग बनते हैं। 

3.     संतुलित दिनचर्या जीवन के शारीरीक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक पक्षों का सम्यक रुप से निर्वाह करती दिनचर्या संतुलित मानी जाती है। इसको साधना हालाँकि कठिन होता है, लेकिन यह संतुलन सकारात्मक ऊर्जा का अजस्र स्रोत है। आज की नकारात्मकता का एक मूल कारण असंतुलित दिनचर्या एवं बिगड़ी जीवन शैली है।

4.     स्वच्छता एवं सुव्यवस्था गंदगी एवं अस्त-व्यस्तता, नकारात्मकता  का एक उर्वर स्रोत है, अतः जीवन को स्वच्छता एवं सुव्यवस्था से पुष्ट करना, पॉजिटिव ऊर्जा के सृजन का एक सशक्त आधार है। बाहरी स्वच्छता आंतरिक पवित्रता की ओर ले जाती है, और बाह्य सुव्यवस्था वैचारिक स्पष्टता को प्रकट करती है।

5.     प्रकृति के संग साथ प्रकृति ईश्वर की कृति है, इसके माध्यम से स्वयं परमेश्वर झरते हैं। प्रकृति का सान्निध्य सकारात्मक ऊर्जा का अजस्र स्रोत है, जिसकी गोद में बिताए कुछ पल तरोताजा करने में सक्षम होते हैं।

6.     सात्विक आहार आहार का मनःस्थिति पर प्रभाव सर्वविदित है। राजसिक औऱ तामसिक आहार से मन एवं इंद्रियों की चंचलता एवं जड़ता बढ़ती है, वहीं सात्विक आहार शरीर व मन को पुष्ट करने के साथ हल्का रखते हैं, अतः इनका अपने शरीर की आवश्यकता के अनुरुप सेवन करना विवेकसंगत होगा।

7.     प्रपंच से रहें दूर परचर्चा, परनिंदा नकारात्मकता की जननी है, अतः इससे बचें। ऐसे लोगों से, ऐसे परिवेश से बचें, जहाँ निंदा, बुराई का नकारात्मक वातावरण सघन हो, ऐसे स्थान से यथासंभव दूर ही रहें। इनके स्थान पर प्रेरक, सकारात्मक एवं ऊर्जावान व्यक्तियों का सत्संग करें।

8.     प्रेरक पुस्तकों का सान्निध्य अच्छी पुस्तकों को जीवंत देवता कहा गया है, जो हमें तत्काल प्रेरणा और प्रकाश देते हैं। इनके सकारात्मक विचार बौद्धिक आहार के रुप में व्यक्तित्व को पुष्ट और जीवन को प्रेरित करते हैं। 

9.     एक कर्म निःस्वार्थ भी सभी कर्म प्रायः हम अपने लिए ही करते हैं, जो स्वार्थ प्रेरित होते हैं। दिन में एक कर्म ऐसा भी हो, जो बिना किसी आशा अपेक्षा, स्वार्थ के हो। छोटा सा भी एक ऐसा कर्म सकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश का वाहक बनता है। 

10.            ध्यान के पल दो चार ध्यान पॉजिटिव ऊर्जा के मूल स्रोत से जुड़ने का एक सशक्त माध्यम है। हालाँकि यह शुरुआत में उतना सरल नहीं होता, लेकिन अभ्यास के साथ इसके माध्यम से सचेतन रुप से पॉजिटिव ऊर्जा को ग्रहण व धारण किया जा सकता है।


11.            प्रार्थना का अचूक उपचार अपने प्रयास पुरुषार्थ चूक जाने पर, सर्वशक्तिमान परमात्म सत्ता पर आस्था और उससे मदद की आकुल पुकार, जीवन में नयी शक्ति व चेतना का संचार करती है। प्रार्थना जीवन की नेगेटिविटी को निरस्त करने व इसमें पाजिटिव ऊर्जा के संचार का एक सरल एवं सशक्त उपाय है।

12.            शारीरिक फिटनेस का ठोस आधार कहना न होगा की स्वस्थ शरीर सकारात्मकता का एक ठोस आधार है। बीमारी व्यक्ति को दुर्बल बनाती है और दीर्घकाल तक इसका प्रहार व्यक्ति को अवसाद और नकारात्मकता से भर देता है। अतः नित्य, शारीरिक फिटनेस के लिए कुछ प्रयास समझदारी वाला कदम होगा।

13.            अपने क्रिएटिव संसार को रखें जीवंत अपनी रुचि के अनुरूप नित्य या साप्ताहिक कुछ नया सृजन सकारात्मक ऊर्जा के स्रोत से जोड़े रखता है, यह किसी नयी कविता, नया लेख, नया चित्र या अपनी रुचि के अनुरुप कुछ नया सृजन का प्रयोग हो सकता है। क्रिएटिव जीवंतता व्यक्ति को पॉजिटिव ऊर्जा से जोड़े रखती है।

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