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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

चरित्र निर्माण, कालजयी व्यक्तित्व का आधार


"Character has to be established trough a thousand stumbles. Swami Vivekananda" 

चरित्र, अर्थात्, काल के भाल पर व्यक्तित्व की अमिट छाप
 
   चरित्र, सबसे मूल्यवान सम्पदा -
   कहावत प्रसिद्ध है कि, यदि धन गया तो समझो कुछ भी नहीं गया, यदि स्वास्थ्य गया तो समझो कुछ गया और यदि चरित्र गया, तो समझो सब कुछ गया। निसंदेह चरित्र, व्यक्तित्व क सबसे मूल्यवान पूँजी है, जो जीवन की दशा दिशा- और नियति को तय करत है। व्यक्ति की सफलता कितनी टिकाऊ है, बाह्य पहचान के साथ आंतरिक शांति-सुकून भी मिल पा रहे हैं या नहीं, सब चरित्र निर्माण के आधार पर निर्धारित होते हैं। व्यवहार तो व्यक्तित्व का मुखौटा भर है, जो एक पहचान देता है, जिससे एक छवि बनती है, लेकिन यदि व्यक्ति का चरित्र दुर्बल है तो यह छवि, पहचान दूर तक नहीं बनीं रह सकती। प्रलोभन और विषमताओं के प्रहार के सामने व्यवहार की कलई उतरते देर नही लगती, असली चेहरा सामने आ जाता है। चरित्र निर्माण इस संकट से व्यक्ति को उबारता है, उसकी पहचान, छवि को  बनाए रखने में मदद करता है, सुख के साथ आनन्द का मार्ग प्रशस्त करता है।
  
   चिंतन, चरित्र और व्यवहार -
   हम जैसा चिंतन करते हैं बैसा ही हमारा चरित्र बनता जाता है और वैसा ही व्यवहार निर्धारित होता है। कहावत प्रसिद्ध है, चिंतन, चरित्र और व्यवहार। वास्तव में चिंतन और व्यवहार मिलकर जो छाप, इंप्रिंट चित्त पर डालते हैं, उनके अनुरुप हमारा चरित्र रुपाकार लेता है। बार बार जो हम सोचते हैं, वही करते हैं और वैसा ही चित्त पर संस्कारों के रुप में च्छाई-बुराई का जखीरा इकट्ठा होता जाता है। इन्हीं पॉजिटीव और नेगेटिव संस्कारों का सम्मिलित परिणाम ही हमारे चरित्र को परिभाषित करता है और वैसा ही हमारा स्वभाव बनता जाता है। यह संस्कार, स्वभाव ही हमारे चरित्र के रुप में हमारे व्यक्तित्व की विशिष्ट छवि निर्धारित करत हैं, पहचान बनात हैं और व्यावहारिक जीवन की सफलता, असफलता को निर्धारित करत हैं।

   पशुता से इंसानियत और देवत्व की महायात्रा का हमसफर - 
   इन्हीं संस्कारों के अनुरुप इंसान विरोधाभासी तत्वों की एक विचित्र सृष्टि है। मनुष्य के अंदर एक पशु भी छिपा है, एक इंसान भी और एक देवता भी। यदि पशु की नकेल न कसी जाए, मन-इंद्रियों को संयमित अनुशासित नहीं किया गया तो उसे पिशाच, राक्षस बनते देर नहीं लगती। आज जो पाश्विक, अमानवीय, पैशाचिक घटनाएं समाज में भ्रष्टाचार, दुराचार, अपराध, हिंसा, आतंक के रुप में ताण्डब नर्तन कर रही हैं, इनमें ऐसे ही कलुषित चित्त, विकृत मानसिकता बाले तत्व सक्रिय हैं। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया ही मनुष्य को पशुता से उपर उठाकर इंसान बनाती है, मानव से महामानव बनने की ओर प्रवृत करती है, देवत्व जिसकी स्वाभाविक परिणति होती है। सार रुप में कहें तो इंसान के पतन और उत्थान दोनों की कोई सीमा नहीं है, सारा खेल चरित्र के उत्थान पतन के ईर्द-गिर्द घूमता है। 
  
   चरित्र - स्थायी व टिकाऊ सफलता का आधार -
   प्रतिभा या योग्यता व्यक्ति को समाज में पहचान व स्थान दे सकती है, एक रेप्यूटेशन दे सकती है, लेकिन उसको टिकाऊ व स्थायी चरित्र ही बनाता है। हर कसौटी पर खरा उतरने की सामर्थ्य चरित्र देता है। चरित्र के अनुरुप ही व्यक्ति के कुछ असूल, मानदण्ड, जीवन मूल्य तय होते हैं, जिनका पालन व्यक्ति हर परिस्थिति में करता है। ये आचरण-व्यवहार की स्वनिर्धारित लक्ष्मणरेखाएं हैं जिसका वह हर हालत में पालन करता है, जिनका उल्लंघन वह होशोहवाश में नहीं कर सकता। यदि परिस्थितिवश भूल-चूक हो भी गई तो इनका प्रायश्चित परिमार्जन किए बिन चैन से नहीं बैठ सकता। यह संवेदनशीलता, यह इमानदारी ही चरित्र निर्माण का आधार है, जो व्यक्ति को विशिष्ट पहचान देती है, उसकी यूएसपी बनती है, अघोषित ब्राँड तय करती है। यह व्यक्तित्व को वह विश्वसनीयता, प्रामाणिकता देती है, जो काल के कपाट पर अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ती है।
  
   आदर्श का सही चयन महत्वपूर्ण
   जीवन में उच्च आदर्श के अनुरुप हम चित्त के संस्कारों का प्रक्षालन, परिमार्जन कर व्यक्तित्व को मनमाफिक रुपाकार दे सकते हैं। जीवन को दशा व दिशा का मनचाहा निर्धारण कर सकते हैं। अंतर की पाश्विक वृतियों को परिष्कृत कर जीवन की उच्चतर संभावनाओं को साकार कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में आदर्श का निर्धारण चरित्र निर्माण का एक निर्णायक तत्व है। आदर्श का सही निर्धारण डाकू बाल्मीकि को संत बना सकता है, वेश्या आम्रपाली को साध्वी बना सकता है, काम लोलुप तुलसी और सूरदास को एक संत बना सकता है, नास्तिक भगतसिंह को युवाओं का आदर्श बना सकता है, संशयग्रस्त नरेंद्र को कालजयी युगपुरुष बना सकता है, पश्चिमी शिक्षा में शिक्षित अरविंद को क्राँतिकारी महायोगी बना सकता है। और यही आदर्श एक आम इंसान को क्रमशः उत्थान की सीढियों पर आगे बढ़ाते हुए जीवन के चरमोत्कर्ष तक ले जा सकता है।

   चरित्र का व्यवहारिक मापदण्ड
   वस्तुतः चरित्र हमारे जीवन की सफलता, बुलंदी, चरमोत्कर्ष की सीमा का निर्धारक तत्व भी है। हम जीवन में किन ऊँचाइयों को छू पाएंगे, इसका निर्धारण चरित्र ही करता है। क्योंकि चरित्र हमारे व्यक्तित्व की जडे हैं, यह कितनी गहरी हैं या उथली, कितनी मजबूत हैं या नाजुक – ये जीवन की संभावनाओं को तय करती हैं। वास्तव में चरित्र हमारे व्यक्तित्व रुपी जंजीर की सबसे कमजोर कडी से तय होता है। हम किस बिदुं पर आकर वहक, बिखर, फिसल व टूट जाते हैं, यही हमारे चरित्र का व्यवहारिक मापदण्ड हैं, जिसके आइने में हम रोज अपनी समीक्षा कर सकते हैं। और चरित्र निर्माण की प्रक्रिया को जीवन का एक अभिन्न अंग बनाते हुए, रोज खुद को तराशते हुए, अपनी संकल्प सृष्टि का निर्माण कर सकते हैं।
 
   चरित्र निर्माण से सम्बन्धित अन्य लेख नीचे देख सकते हैं -
 
 

रविवार, 10 अगस्त 2014

जीवन के अधूरेपन को पूर्णता देता अध्यात्म


अध्यात्म क्या?
आजकल अध्यात्म का बाजार गर्म है। टीवी पर आध्यात्मिक चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। रोज मार्केट में अध्यात्म पर एक नई पुस्तक आ जाती है। न्यू मीडिया अध्यात्म से अटा पड़ा है। लेकिन अध्यात्म को लेकर जनमानस में भ्रम-भ्राँतियों का कुहासा भी कम नहीं है। इस ब्लॉग पोस्ट में अध्यात्म तत्व के उस पक्ष पर प्रकाश डालने का एक बिनम्र प्रयास किया जा रहा है, जिससे कि हमारा रोज वास्ता पड़ता रहता है। 

     शाब्दिक रुप में अध्यात्म, अधि और आत्मनः शब्दों से जुड़ कर बना है। जिसका अर्थ है - आत्मा का अध्ययन और इसका अनावरण।

मन एवं व्यक्तित्व का अध्ययन तो आधुनिक मनोविज्ञान भी करता है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ हैं। इसके अंतर्गत अपना वजूद देह मन की जटिल संरचना और समाज-पर्यावरण के साथ इसकी अंतर्क्रिया से उपजे व्यक्तित्व तक सीमित है। इस सीमा के पार अध्यात्म अपने परामनोवैज्ञानिक एवं पारलौकिक स्वरुप के साथ व्यक्तित्व का समग्र अध्ययन करता है। इसीलिए अध्यात्म को उच्चस्तरीय मनोविज्ञान भी कहा गया है। देह मन के साथ यह व्यक्तित्व के उस सार तत्व से भी वास्ता रखता है, जिसे यह इनका आदिकारण मानता है और इनसे जुड़ी विकृतियों का समाधान भी। 

इसीलिए आध्यात्मिक दृष्टि में जीवन का लक्ष्य आत्मजागरण, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरप्राप्ति जैसी स्थिति है, जिनसे उपलब्ध पूर्णता की अवस्था को समाधि, कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, स्थितप्रज्ञता जैसे शब्दों से परिभाषित किया गया है। इस पृष्ठभूमि में अध्यात्म की एक प्रचलित परिभाषा है - अंतर्निहित दिव्यता या देवत्व का जागरण और इसकी अभिव्यक्ति। यह प्रक्रिया खुद को जानने के साथ शुरु होती है, अपनी अंतर्रात्मा से संपर्क साधने और उस सर्वव्यापी सत्ता के साथ जुड़ने के साथ आगे बढ़ती है। 

अध्यात्म की आवश्यकता,
जाने अनजाने में हम अध्यात्म को जी रहे होते हैं। जिन क्षणों में हम शांति, सुकून, अकारण सुख व आनन्द की अवस्था में होते हैं, हम अपने वास्तविक स्व में, गहन अंतरात्मा में जी रहे होते हैं। शांति, स्वतंत्रता व आनन्द के ये अंतस्थ-आत्मस्थ पल हमारा वास्तविक स्वरुप हैं, वास्तविक अवस्था है। इस अवस्था को सचेतन ढंग से हासिल करना, इसे बरकरार रखना, इसे जीना – यही अध्यात्म क्षेत्र का पुरुषार्थ है, प्रयोजन है, प्रावधान है।

मनोवैज्ञानिक मैस्लोव के अनुसार, अध्यात्म व्यक्ति की उच्चतर आवश्यकता (मेटा नीड) है। जब व्यक्ति की शारीरिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक जरुरतें पूरी हो जाती हैं, तो उसकी आध्यात्मिक जरुरत शुरु होती है। अर्थात् भौतिक उपलब्धियों के बावजूद जो खालीस्थान रहता है, जो शून्यता रहती है, जो अधूरापन कचोटता है, जो अशांति बेचैन करती है, अध्यात्म उसको भरता है, उसका उपचार करता है, उसको पूर्णता देता है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर सत्य, ज्ञान और आनन्द रुपी सत्ता ही तो हमारा असली रुप है।

यदि बात भौतिक बुलन्दी की ही करें जो दुनियाँ पर एक नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि अध्यात्म कालजयी सफलता का आधार है। हम अपने क्षेत्र के चुड़ाँत सफल व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं – प्रेज़िडेंट, पीएम, सीएम, मंत्री, नेता, अधिकारी, जनरल, धन कुबेर, स्टार रचनाकार, खिलाड़ी, अभिनेता आदि। यदि इनके साथ भी हमारी आंतरिक शाँति, स्थिरता, संतुलन बरकरार है तो मानकर चल सकते हैं कि हम अपने अध्यात्म तत्व में जी रहे हैं। अन्यथा इन बैसाखियों के हटते ही, रिटायर होते ही जिंदगी नीरस, बोझिल एवं सूनेपन से आक्रांत हो जाती है। स्पष्टतयः अध्यात्म के अभाव में जिंदगी की सफलता, सारी बुलंदी अधूरी ही रह जाती है।

यहीं से अध्यात्म का महत्व स्पष्ट होता है और इसका एक नया अर्थ पैदा होता है। अध्यात्म एक आंतरिक तत्व है, आत्मिक संपदा है, जो हमें सुख, शांति, शक्ति, आनन्द का आधार अपने अंदर से ही उपलब्ध कराता है। बाहरी अबलम्बन के हटने, छूटने, टूटने के बावजूद हमारी आंतरिक शक्ति व संतुलन का स्रोत बना रहता है और तमाम अभाव-विषमताओं के बीच भी व्यक्ति अपनी मस्ती व आनन्द में जीने में सक्षम होता है। अर्थात् अध्यात्म अंतहीन सृजन का आधार है, आगार है, जिसमें जीवन की हर परिस्थिति, हर मनःस्थिति सृजन की संभावनाओं से युक्त रहती है।

इस तरह अध्यात्म एक प्रभावी जीवन का एक अनिवार्य पहलू है, जिसकी उपेक्षा किसी भी तरह हितकर नहीं। जीवन में इसके महत्व को निम्न बिंदुओं के तहत समझा जा सकता है -

अध्यात्म का महत्व -
1.  जीवन की समग्र समझ - जितना हम खुद को जानने लगते हैं, उतना ही हमारी मानव प्रकृति की समझ बढ़ती है। व्यक्तित्व की समग्र समझ के साथ जीवन की जटिलताओं का निपटारा उतने ही गहनता एवं प्रभावी ढंग से संभव बनता है।

2.    एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक–अध्यात्म एकतरफे भौतिक विकास को एक संतुलन देता है। आज की प्रगति की अँधी दौड़ से उपजी विषमता व असंतुलन का परिणाम आत्मघाती-सर्वनाशी संकट है, जिसका जड़ मूल से समाधान अध्यात्म में निहित है।

3. अपने भाग्य विधाता होने का भाव – अध्यात्म जीवन की समग्र समझ देता है। व्यक्तित्व की सूक्ष्म जटिलताओं से रुबरु कराता है, इन पर नियंत्रण का कौशल सिखाता है और क्रमशः खुद पर न्यूनतम कंट्रोल एवं शासन का विश्वास देता है कि हम अपने भाग्य के विधाता आप हैं।

4.  द्वन्दों से पार जाने की शक्ति व सूझ – अध्यात्म जीवन की अनिश्चितता के बीच एक सुनिश्चितता का भाव देता है। जीवन के द्वन्दों के बीच सम रहने और विषमताओं को पार करने की शक्ति देता है। घोर निराशा के बीच भी आशा का संचार करता है।

5.  खुद से रुबरु कर, विराट से जोड़े – खुद के जानने की प्रक्रिया से शुरु अध्यात्म व्यक्ति को अंतर्रात्मा से जोड़ता है और एक जाग्रत विवेक तथा संवेदी ह्दय के साथ व्यक्ति परिवार, समाज एवं विश्व से जुड़ता है और विराट का एक संवेदी घटक बन जीता है।
6.   विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का आधार – अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है,  जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है, और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं। इससे व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।

7.  व्यक्तित्व की चरम संभावनाओं को साकार करे – अध्यात्म अंतर्निहित दिव्य क्षमताओं एवं शक्तियों के जागरण-विकास के साथ व्यक्तित्व की चरम सम्भावनाओं को साकार करता है। आज हम जिन महामानवों-देव मानवों को आदर्श के रुप में देखते हैं वे किसी न किसी रुप में इसी विकास का परिणाम होते हैं।
अतः अध्यात्म जीवन का ऐसा सत्य है, एक ऐसी अनिवार्यता है, जो देर-सवेर जीवन का सचेतन हिस्सा बनती है और लौकिक अस्तित्व को पूर्णता देती है। इस तरह यह बहस, विश्लेषण, विवेचन व चर्चा से अधिक जीने का अंदाज है जिसे जीकर ही जाना व पाया जा सकता है। प्राण वायु की तरह हर पल अध्यात्म तत्व को जीवन में धारण कर हम अपने जीवन की खोई जीवंतता और लय को पुनः प्राप्त करते हैं।


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