शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

स्वाध्याय-सत्संग, परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा

अध्यात्म-विद्या का प्रथम सुत्र यह है कि प्रत्येक बुरी परिस्थिति का उत्तरदायी हम अपने आपको मानें। बाह्य समस्याओं का बीज अपने में ढूंढें और जिस प्रकार का सुधार बाहरी घटनाओं, व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में चाहते हैं उसी के अनुरुप अपने गुण-कर्म-स्वभाव में हेर फेर प्रारम्भ कर दें। भीतरी सुधार बाहरी समस्याओं को सुधारने को सबसे बड़ा, सबसे प्रभावशाली उपाय सिद्ध होता है। माना की दूसरों की गलतियाँ और बुराईयाँ भी हमें परेशान करती हैं और अनेक प्रकार की बाधाएं खड़ी करके प्रगति का द्वारा रोकती हैं। संसार में बुरे लोग हैं और बुराईयाँ भी कम नहीं हैं इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता, पर साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई बस्तु सजातीय एवं अनुकूल परिस्थितियों से ही बढ़ती है एवं पनपती है। बुराई को अपना रुप प्रकट करने का अवसर तभी मिलेगा, जब बैसी ही बुराई अपने अन्दर भी हो। अपना स्वभाव उत्कृष्ट हो तो बुरे लोगों को भी झक मारकर निरस्त होना पड़ता है। (पृ.3)

 कोई अध्यात्मवादी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसे ग्रहदशा ने, परिस्थितियों ने या दूसरों ने सताया है। वह सदा यही मानेगा कि अपने भीतर कोई कमी रह गई जिसके कारण दुष्टता को सफल होने का अवसर मिल गया। प्रत्येक बाह्य आघात या असफलता का कारण वह अपने अन्दर ढूँढ़ता है और जो त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं उन्हें सुधारनें के लिए जुट जाता है। इस तरीके को अपनाने से तीन-चौथाई समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक चौथाई जो अनिवार्य बनी रहती हैं उन्हें वह उपेक्षा में अपनी सहनशीलता के बलबूते हँसते-हँसते भुगत लेता है। कठिनाई के कारण दूसरे लोग जिस पर उद्विग्न रहते और रोते-चिल्लाते हैं बैसी परिस्थिति उसकी गम्भीरता उत्पन्न ही नहीं होने देती। तितिक्षा और सहनशीलता के बल पर बड़े से बड़े अभाव एवं कष्टों को हँसते हुए भूलाया या भुगता जा सकता है। (पृ.4)

 इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि बाहर से जो बाधाएं उपस्थिति होती हैं, उन्हें हटाने का कोई प्रयत्न न किया जाए। वह तो करना ही चाहिए। संघर्ष में ही जीवन है। प्रत्येक पुरुषार्थी को मार्ग की बाधाएं हटाकर ही उनसे छूटकर ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है। पर छूटने की शक्ति भी तो आत्म-निर्माण से ही प्राप्त होती है, यदि मनुष्य अस्त-व्यस्त मनोभूमि का हुआ तो उसके लिए बाधाओं से लड़कर प्रगति का मार्ग बना सकना तो दूर होगा, उल्टे उनकी कल्पना और आशंका से ही भयभीत होकर वह मानसिक सन्तुलन खो देगा और चिन्ता एवं परेशानी से अपना स्वास्थ्य तक गँवा देगा। (पृ.4-5)

 

हमें अपना उद्धार करना चाहिए, अपने को सुधारना और सम्हालना चाहिए। आज की अपेक्षा कल अधिक निर्मल और अधिक उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस मार्ग को अपना सकना हमारे लिए सम्भव हो सका तो न तो केवल अपना वरन् समाज का, सारे विश्व का भी हित साधना करने का श्रेय प्राप्त करेंगे। युग-निर्माण का कार्य व्यक्ति निर्माण से ही आरम्भ होता है। संसार की सेवा का व्रत लेने वाले प्रत्येक परमार्थी को अपने आप की सेवा करने का ब्रत लेकर विश्व मानव की उतने अंश में सेवा करने को तत्पर होना चाहिए जितने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर है। समस्त संसार की सेवा कर सकना कठिन है। अपनी सेवा तो आप कर ही सकते हैं। समस्त संसार को सुखी बनाना और सन्मार्ग पर चलाना यदि अपने लिए कठिन हो तो अपने को सुखी-सन्तुलित एवं सन्मार्गगामी तो बना ही सकते हैं। दूसरों का उद्धार कर सकना उसी के लिए सम्भव होता है जो अपने उद्धार कर सकने में समर्थ होता है। (पृ.7)

आन्तरिक परिष्कार की ओर समुचित ध्यान देना यही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का प्रथम चरण है। अध्यात्म का पहला शिक्षण यही है कि मनुष्य अपना स्वरुप समझे। यह सोचे की मैं कौन हूँ? क्या हूँ और क्या बना हुआ हूँ? आत्म-चिन्तन को साधना का प्रथम सोपान कहा जाता है। यह चिन्तन ईश्वर-जीव-प्रकृति की उच्च भूमिका से आरम्भ नहीं किया जा सकता। कदम तो क्रमशः ही उठाए जाते हैं। नीचे की सीढ़ियों को पार करते हुए ही ऊपर को चढ़ा जा सकता है। सोहम्, शिवोहम् की ध्वनि करने से पूर्व, अपने को सच्चिदानन्द मानने से पूर्व हमें साधारण जीवन पर विचार करने की आवश्यकता पड़ेगी और देखना पड़ेगा कि ईश्वर पुत्र-जीव आज कितने दोष-दुर्गुणों से ग्रसित होकर पामरता का उद्गिन जीवन यापन कर रहा है। माया के बन्धनों ने उसे कितनी बुरी तरह से जकड़ रखा है। और षडरिपु पग-पग पर कैसा त्रास कर रहे हैं। माया का अर्थ है - वह अज्ञान, जिससे ग्रस्त होकर मनुष्य अपने को निर्दोष और सारी परिस्थितियों के लिए दूसरों को उत्तरदायी मानता है। भव-बन्धनों का अर्थ है कुविचारों, कुसंस्कारों और कुकर्मों से छुटाकारा पाना। अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है। (पृ.11)

 अध्यात्म मार्ग पर पहला कदम बढ़ाते हुए साधक को सबसे पहले आत्म-चिन्तन की साधना करनी पड़ती है। ब्रह्मचर्य, तप, त्याग, सत्य, अहिंसा आदि उच्चतम आध्यात्मिक तत्वों को अपनाने से पहले उसे छोटी-छोटी त्रुटियों को संभालना होता है। परीक्षार्थी पहले सरल प्रश्नों को हाथ में लेते हैं ओर कठिन प्रश्नों को अन्त के लिए छोड़ रखते हैं। लड़कियाँ गृहस्थ की शिक्षा गुड़ियों के खेल से आरम्भ करती है। युद्ध में शस्त्र चलाने की निपुणता पहले साधारण खेल के रुप में उसका अभ्यास करके ही की जाती है। सबसे पहले एमए की परीक्षा देने की योजना बनाना गलत है। पहले बाल कक्षा, फिर मिडिल, मैट्रिक, इण्टर, बीए पास करते हुए एमए का प्रमाण पत्र लेने की योजना ही क्रमबद्ध मानी जाती है। सुधार के लिए सबसे पहले सत्य, ब्रह्मचर्य या त्याग को ही हाथ में लेना आवश्यक नहीं है। आरम्भ छोटे-छोटे दोष-दुर्गुणों से करना चाहिए। उन्हें ढूँढना और हटाना चाहिए। इस क्रम में आगे बढ़ते वाले को जो छोटी-छोटी सफलताएं मिलती हैं, उनसे उसका साहस बढ़ता चलता है। उस सुधार के जो प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं उन्हें देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी होता है औऱ उन्हें पूरा करने का मनोबल भी संचित हो चुका होता है।

 जो असंयम, आलस्य, आवेश, अनियमितता और अव्यवस्था की साधारण कमजोरियों को जीत नहीं सका, वह षड़रिपुओं, असुरता के आक्रमणों का मुकाबला क्या करेगा। सन्त, ऋषि और देवता बनने से पहले हमें मनुष्य बनना चाहिए। जिसने मनुष्यता की शिक्षा पूरी नहीं की, वह महात्मा क्या बनेगा। (पृ.11-12)

 हम स्वयं ही अपना उद्धार कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। इसे ह्दय में पक्की तरह से अंकित करलें। अकेले ही आगे बढ़ने के लिए पथ संधान करने के लिए आपको अपनी आत्मा पर विश्वास करना होगा, उसे ही अपना सर्वस्व मानना होगो। आत्म स्वत्व को भूला देने वाला व्यक्ति अधिक दिन नहीं चल सकता, उसे संसार नष्टकर डालता है। आत्म-शक्ति को समझने, जानने और उसे बढ़ाने के लिए उन सभी बुरे कर्मों से बचना होगा, जो हमारे अन्तर्बाह्य जीवन को कलुषित करते हैं। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है संयम की। संयमी ही स्वाबलम्बी हो सकता है। (पृ.21-22)

 जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वाबलम्बी बनने का प्रयत्न करें। अपने प्रत्येक कार्य को स्वयं पूरा करें। बालकों की तरह दूसरों कें कन्धों पर चढ़कर चलने की वृत्ति का त्याग करें। दूसरों के बलवूते आपको स्वर्ग का राज्य, अपार धन-सम्पतियों का अधिकार, उच्च पद-प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें। अपने आत्म-सम्मान के लिए, अन्तर्ज्योति को प्रज्जवलित रखने के लिए, स्बावलम्बी बनने के लिए। अपने प्रयत्न से आप छोटी-सी झोंपड़ी में रहकर, धरती पर विचरण करके, मिट्टी खोदकर कड़ा जीवन भी बिता लेंगे, तो बहुत बड़ी सफलता होगी, आपके अपने लिए। इससे आपको अकेले के स्वत्व में वह शक्ति क्षमता पैदा होगी, जो किसी भी बरदान प्राप्त शासक, पदाधिकारी, सम्पत्तियों के स्वामी को दुर्लभ होती है। (पृ.22)

(आचार्यश्री की पुस्तक उद्धरेदात्मनात्मानम् से उद्धृत)

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